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मेवाड़ के जैन तीर्था भाग 2
था और उन्हें राजाओं द्वारा सम्मानित किया जाता था। इन्होंने इसका विरोध किया और संवत् 1167 में महावीर भगवान का मंदिर बनवाया। श्री जिनदत्तसूरि - ये खरतरगच्छ के आचार्य थे। ये जिन वल्लभ सूरि के शिष्य थे। ये गुजरात राज्य मे धोलका के निवासी थे। इन्होंने केवल 9 वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण की। इन्होंने पाटन में जैन दर्शन का गहन अध्ययन किया और इनको चित्तौड़ में ही देवभद्राचार्य ने संवत् 1169 के वैशाख कृष्ण 6 को सूरि पद से अलंकृत किया और जिनदत्त सूरि नाम दिया। खरतर गच्छ की मान्यता के अनुसार आचार्य की पदवी संघ द्वारा प्रदान की जाती है । उल्लेखानुसार श्री कर्माशाह दोशी के पूर्वज श्री लक्ष्मणसिंह भुवनपालसिंह ने संघ के साथ उस समय सं. 1169 वैशाख कृष्णा षष्टि को सूरि पद से अलंकृत किया । इनकी प्रमुख रचना सन्देहदोहावली, गणधर सप्तनिका, पार्श्वनाथ स्तोत्र, उपदेश धर्म रसायन, सर्व जिन स्तुति, वीर स्तुति आदि है। इन्होनें कई गौत्र का निर्माण किया। आचार्य सोमप्रभसूरि - ये बड़गच्छ के आचार्य विजयसिंहसूरि के शिष्य थे। इन्होंने आगम शास्त्र का विशद् अध्ययन किया । इन्होनें 11 वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण की और 22 वर्ष की आयु में आचार्य पद प्राप्त किया। इन्होंने चित्तौड़ में ही ब्राह्मण पण्डितों से शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की। इनकी प्रमुख रचना है 'सुमतिनाह चरित (सुमतिनाथ चरित्र) कुमारपाल पडिबोही (कुमारपाल प्रतिबोध) श्रृंगार, वैराग्य, तरंगिनी, सिन्दूर प्रकर आदि । श्री उद्योतनसूरि - वि.सं. 834 में कुवलयमाला एक प्रमुख रचना रचित की। श्री देवभद्रसूरि - इन्होंने 12वीं शताब्दी में चित्तौड़ में भागवत शिवमूर्ति को शास्त्रार्थ में पराजित किया। श्री हरिषेण - इनका जन्म चित्तौड़ में हुआ और इन्होंने धम्म परिक्खा (धर्म
परीक्षा) ग्रन्थ की रचना की। 10. श्री हीरानंदसूरि - ये हरिभद्र सूरि के परिवार के ही प. मानचन्द्र के शिष्य थे वे
राजस्थानी के महान विद्वान् व कवि थे। महाराणा कुम्भा ने इन्हें गुरू माना और इन्हें कविराज की उपाधि दी।
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