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के पत्ते, फल, गुच्छे आदि नारकियों के ऊपर वज्रदण्ड के समान गिरते हैं।
परस्त्री-रत नारिकियों के शरीर में अतिशय तपी हुई लोहमयी युवती की मूर्ति को दृढता से लगाते हैं और उन्हें जलती हुई आग में फेंक देते हैं। पूर्व भव में मांस-भक्षण के प्रेमी नारकियों के शरीर के मांस को काटकर अन्य नारकी उन्हीं मांस खण्डों को उन्हीं के मुँह में डालते हैं।
पधु एवं का सेवन करने वाले ना क्षियों के मुखों में अन्य नारकी अत्यन्त तपे हुए द्रवित लोहे को डालते हैं, जिससे संतप्त हो समस्त अवयव समूह पिघल जाता है।
दुष्ट नारकी उनके शरीर के तिल-तिल बराबर टुकड़े कर डालते हैं फिर भी वे पारे की तरह मिल जाते हैं।
वहाँ का रूप, रस, गन्ध, स्पर्श सभी भयंकर होता है। अम्बावरीष जाति के असुरकुमारदेव नारकियों को परस्पर लड़ाते हैं। उनके युद्ध को देखकर मन में संतुष्ट होते हैं।' वहाँ पर कोई किसी की सहायता नहीं करता है। नारकी जीवों को नेत्र की टिमकार मात्र भी सुख नहीं है। वे रात-दिन दुःख रूपी अग्नि में जलते रहते हैं।
ति. प. भाग- एक. दूसरा अधिकार गा. ३ ६-३४३ |
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