Book Title: Karananuyoga Part 3
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 119
________________ दुःषमा - दुःषमा ( २ ) दुःषमा ( ३ ) दुःषमा- सुषमा (४) सुषमा - दुःषमा (५) सुषमा (६) सुषमा- सुषमा नाम के छह भेद हैं। अवसर्पिणी काल में विद्या, बल, आयु तथा शरीर की अवगाहना आदि का आगे-आगे ह्रास होता रहता है। उत्सर्पिणी काल में विद्या, बल, आयु तथा शरीर की अवगाहना आदि की आगे-आगे वृद्धि होती रहती है। विदेह क्षेत्र में सदा चतुर्थकाल, हैमवत हैरण्यवत् क्षेत्र में सदा तीसरा काल, हरि - रम्यक क्षेत्र में सदा दूसरा काल और देवकुरु - उत्तरकुरु में सदा पहला काल प्रवर्तमान रहता है। वियार्ध की श्रेणियों में तथा म्लेच्छ खण्डों में अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के आदि - अन्त जैसा परिवर्तन होता रहता है । मानुषोत्तर पर्वत के आगे से लेकर स्वयंप्रभ पर्वत के पूर्व तक असंख्यात् द्वीप - समुद्रों में सदा तृतीय काल का प्रवर्तन होता है । अर्थ स्वयम्भूरमण द्वीप एवं स्वयम्भूरमण समुद्र में छह काल का परिवर्तन नहीं होता है । वहाँ पर पंचम काल सदृश प्रवर्तन होता है। २००. प्रश्न : भोगभूमि किसे कहते हैं ? उनकी रचना कहाँ-कहाँ पर और कैसी हैं ? उत्तर : जहाँ मनुष्यों का जीवन निर्वाह दस प्रकार के कल्पवृक्षों से होता है, उन्हें भोगभूमि कहते हैं । यह स्थिर और अस्थिर के भेद (११०) -

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