Book Title: Karananuyoga Part 3
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 143
________________ रचना क्रम से अनन्तगुणी हीन होती जाती है। इसीलिये इसे अश्वकर्ण-करण कहते हैं। २४१. प्रश्न : अन्तरकरण किसे कहते हैं ? उत्तर : विविक्षित कर्मों की अधस्तन और उपरितन स्थितियों के निषेकों को छोड़कर मध्यवर्ती अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितियों के निषेकों का परिणाम-विशेषों के द्वारा अभाव करने को अन्तरकरण कहते हैं। २४२. प्रश्न : आगाल-प्रत्यागाल किसे कहते हैं ? उत्तर : अन्तर-करण हो जाने के पश्चात पुरातन मिथ्यात्व कर्म तो प्रथम या द्वितीय स्थिति में विभाजित हो जाता है, परन्तु नवीन कर्म द्वितीय स्थिति में पड़ता है। उसमें से कुछ द्रव्य अपकर्षण द्वारा प्रथम स्थिति के निषेकों को प्राप्त होता है, उसे आगाल कहते हैं। फिर इस प्रथम स्थिति को प्राप्त हुये द्रव्यों में से कुछ द्रव्याकर्षण द्वारा पुनः द्वितीय स्थिति के निषेकों को प्राप्त होता है, उसे प्रत्यागाल कहते हैं। २४३. प्रश्न : प्रथम स्थिति का क्या लक्षण है ? उत्तर : विवक्षित प्रमाण को लिए हुए नीचे के निषेकों को प्रथम स्थिति कहते हैं। (१३४) .

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