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पाँच करण अर्थात अपकर्षण, उदीरणा, उपशम, निकाचना, निधतत्ति, उदय और सत्त्व चतुर्थ गुणस्थान तक होते हैं। तिर्यञ्च आयु के बन्धन और उत्कर्षणकरण द्वितीय गुणस्थान तक ही होते हैं। सक्रमणकरण को छोड़कर शेष पाँच करण उदय और सत्त्व पञ्चम गुण-स्थान तक होते हैं। मनुष्यायु के बन्धनकरण और उत्कर्षणकरण चतुर्थ गुण-स्थान तक ही होते हैं। उदीरणाकरण प्रमत्तसंयत नामक ६ठे गुण-स्थान तक होता है। संक्रमणकरण के बिना अप्रशस्त उपशामना, नित्ति और निकाचना अपूर्वकरण गुणस्थान के अन्त तक होते हैं। उदय और सत्त्व चौदहवें गुण-स्थान तक होते हैं। देवायु के बन्धन-करण और उत्कर्षण-करण सप्तम गुण-स्थान तक होते हैं, उदय और उदीरणा ये दो करण चतुर्थ गुण-स्थान तक होते हैं। अपकर्षण-करण और सत्त्व-करण ग्यारहवें गुणस्थान तक होते हैं। इसमें संक्रमणकरण नहीं होता है तथा अप्रशस्त उपशामना, निधत्ति और निकाचना अष्टम गुणस्थान के अन्त तक होती है। २३४. प्रश्न : वेदनीय कर्म में करणों की व्यवस्था का क्या क्रम
उत्तर : वेदनीय के दो भेद हैं। (१) साता वेदनीय, (२) असाता वेदनीय। इनमें साता वेदनीय के बन्धन और अपकर्षण करप्प तेरहवें गुणस्थान तक, उत्कर्षणकरण दसवें गुणस्थान तक, उदीरणा
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