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विजयार्थ पर्वत करती हैं। इसी रक्तोदा नदियाँ, लय
की अर्ध दिग्विजय का बोध होता है, इसलिए इनका विजया नाम सार्थक है। इन विजयाधों पर नौ-नौ कूट हैं, जिनमें आठ कूटों पर व्यन्तर देके का निवास है। नवम सिद्धकूट पर जिनमन्दिर है। भरत-ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी विजयाधों में नीचे जो गुफा-द्वार हैं, उनमें प्रवेश कर गंगा-सिन्धु और रक्ता-रक्तोदा नदियाँ, लवणादि समुद्रों में प्रवेश करती हैं। इसी प्रकार प्रत्येक विदेह स्थित विजयाई पर्वत की ऐसी ही रचना है। १६६. प्रश्न : कालचक्र का परिवर्तन कहाँ और किस प्रकार
होता है तथा कहाँ-कहाँ नहीं होता है ? . उत्तर : भरत और ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल के द्वारा कालचक्र का परिवर्तन होता रहता है। उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल के छह-छह भेद हैं। अवसर्पिणी के
१. सुषमा-सुषमा, २. सुषमा, ३. सुषमा-दुःषमा, ४. दुःषमा-सुषमा, ५. दुःषमा और ६. दुःषमा-दुःषमा नाम के छह भेद हैं। सुषमा-सुषमा काल चार कोड़ाकोड़ी सागर का, सुषमा काल तीन कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमा-दुःषमा काल दो कोड़ाकोड़ी सागर का, दुःषमा-सुषमा काल ४२,००० वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का, दुःषमा काल २१,००० वर्ष एवं दुःषमा-दुःषमाकाल २१,००० वर्ष का होता है। इसी प्रकार उत्सर्पिणी काल के भी (१)
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