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चमड़ा और मांस हाता है, न रुधिर और चर्बी होती है, न हड्डियाँ होती हैं, न मल-मूत्र होता है और न नसें ही होती हैं। के पुण्य कर्म के प्रभाव से और अतिशय रूप दिव्य बन्ध होने के कारण उत्तम वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श ग्रहण करते हैं। १२२. प्रश्न : स्वर्गों में प्रवीचार--मैथुन का क्या क्रम है ? उत्तर : भवनत्रिक से लेकर ऐशान स्वर्ग तक देव अपनी देवागंनाओं के साथ शरीर से प्रचीचार करते हैं। सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गों के देव देवागंनाओं के स्पर्श मात्र से, उसके ऊपर चार स्वर्गों के देव-देवागंनाओं के रूपावलोकन मात्र से, उसके ऊपर चार स्वर्गों के देव-देवागंनाओं के गीतादि शब्दों को सुनने मात्र से, आनतादि चार स्वों के देव मन में देवागना का विचार करने मात्र से काम-वेदना से रहित हो जाते हैं। इसके आगे नव ग्रैवेयकों से सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त के सभी अहमिन्द्र देव प्रवीचार रहित होते हैं। ११३. प्रश्न : वैमानिक देवों के अवधिज्ञान का विषयक्षेत्र
कितना है एवं उनकी विक्रियाशक्ति कितनी है ? उत्तर : सौधर्म ऐशान कल्प के देव अपने अवधिज्ञान से नरक को प्रथम पृथ्वी पर्यन्त, सानात्कुमार-माहेन्द्र कल्प के देव दूसरी पृथ्वी पर्यन्त, ब्रह्मादि चार कल्पों के देव तृतीय पृथ्वी पर्यन्त, शुक्र आदि चार कल्पों के देव चतुर्थ पृथ्वी पर्यन्त, आनतादि चार कल्पों के
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