Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र
विवेचन - उपर्युक्त मूल पाठ में विजया राजधानी के ५०० द्वार बताये हैं। उनका आशय यह है कि-विजया राजधानी के गोलाई ली हुई परिधि के चार बराबर विभाग करना। वह एक-एक विभाग एक-एक बाहा कहलाता है। इस प्रकार एक-एक बाहा पर एक सौ पच्चीस-एक सौ पच्चीस द्वार होने से चारों बाहों को मिलाकर कुल ५०० द्वार हो जाते हैं।
तेसि णं भोमाणं बहुमज्झदेसभाए जे ते णवमणवमा भोमा तेसि णं भोमाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पण्णत्ता, सीहासणवण्णओ जाव दामा जहा हेट्टा, एत्थ णं अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पण्णत्ता। तेसि णं दाराणं उत्तिमंगा( उवरिमा )गारा सोलसविहेहिं रयणेहिं उवसोहिया तं चेव जाव छत्ताइछत्ता, एवामेव पुव्वावरेण विजयाए रायहाणीए पंच दारसया भवंतीति मक्खाया॥१३५॥ - भावार्थ - उन भौमों के बहुमध्य भाग में जो नौवें भौम हैं उनके ठीक मध्य भाग में अलग अलग सिंहासम कहे गये हैं। सिंहासनों का वर्णन पूर्वानुसार कह देना चाहिये यावत् सिंहासनों में मालाएं लटक रही हैं। शेष भौमों में अलग अलग भद्रासन कहे गये हैं। उन द्वारों के ऊपरी भाग सोलह प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं आदि सारा वर्णन पूर्वानुसार कह देना चाहिये यावत् उन पर छत्रात्तिछत्र लगे हुए हैं। इस . प्रकार सब मिला कर विजया राजधानी के पांच सौ द्वार होते हैं। ऐसा मैंने और अन्य तीर्थंकरों ने कहा है।
विजयाए णं रायहाणीए चउद्दिसिं पंचजोयणसयाइं अबाहाए एत्थ णं चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तंजहा - असोगवणे सत्तवण्णवणे चंपगवणे चूयवणे, पुरथिमेणं असोगवणे दाहिणेणं सत्तवण्णवणे पच्चत्थिमेणं चंपगवणे उत्तरेणं चूयवणे॥ ते णं वणसंडा साइरेगाई दुवालस जोयणसहस्साइं आयामेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता पत्तेयं पत्तेयं पागारपरिक्खित्ता किण्हा किण्होभासा वणसंडवण्णओ भाणियव्वो जाव बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति सयंति चिटुंति णिसीयंति तुयटृति रमंति ललंति कीलंति मोहंति पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिक्कंताणं सुभाणं कम्माणं कडाणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणा विहरंति॥
भावार्थ - उस विजया राजधानी की चारों दिशाओं में पांच सौ पांच सौ योजन के अन्तराल को छोड़ने के बाद चार वन खंड कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. अशोकवन २. सप्तपर्णवन ३. चंपकवन ४. आम्रवन। पूर्व दिशा में अशोकवन है। दक्षिण दिशा में सप्तपर्णवन है। पश्चिम दिशा में चंपकवन है और उत्तरदिशा में आम्रवन है। वे वनखण्ड कुछ अधिक बारह हजार योजन के लम्बे और पांच सौ योजन के चौड़े हैं। वे प्रत्येक एक एक प्राकार-परकोटे से घिरे हुए हैं। काले हैं, काले ही
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