Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 352
________________ ३३५ सप्तम प्रतिपत्ति •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• हैं। उनसे प्रथम समय नैरयिक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि एक समय में अतिप्रभूत उत्पन्न होते हैं। उनसे प्रथम समयदेव असंख्यातगुणा हैं क्योंकि वाणव्यंतर ज्योतिषी देव प्रभूत उत्पन्न होते हैं। उनसे प्रथम समय तिर्यंच असंख्यातगुणा हैं क्योंकि नैरयिक आदि तीनों गतियों से आकर जीव उत्पन्न होते रहते हैं। उनसे अप्रथम समय नैरयिक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि वे अंगुल मात्र क्षेत्र प्रदेश राशि के प्रथम वर्गमूल में द्वितीय वर्गमूल का गुणा करने पर जो प्रदेश राशि होती है उतनी श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश हैं उसके बराबर हैं। उनसे अप्रथमसमय तिर्यंच अनंतगुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव अनंत हैं। प्रथम समय के मनुष्य से अप्रथम समय के मनुष्य असंख्यातगुणे असंख्यात अन्तर्मुहूर्त रूप गुणक राशि जितना समझना चाहिये (सम्मूर्छिम की स्थिति अंतर्मुहूर्त प्रमाण है अर्थात् सम्पूर्ण मनुष्य की राशि को अन्तर्मुहूर्त के समय से भाग दें तो सारे मनुष्य खाली हो जायेंगे यह चौबीसवां बोल तक तो आ ही गया) उनसे प्रथम समय के नैरयिक असंख्यात गुणा-यह जीव (जिनको नरकायु वेदन का प्रथम समय है वे चाहे ऋजु गति वाले हों या विग्रह गति के हों उन सभी का ग्रहण करना) दूसरी से सातवीं नरक के सभी जीवों से भी असंख्यात गुणा और भवनपति देवों में भी असंख्यातगुणा होते हैं क्योंकि सम्पूर्ण भवनवासी तो प्रथम वर्ग मूल के संख्यातवें भाग प्रमाण ही हैं तो प्रथम समय के नैरयिक-प्रथम वर्गमूल द्वितीय वर्गमूल = सम्पूर्ण नैरयिक - पल्योपम के असंख्यातवें भाग। अर्थात् सम्पूर्ण नैरयिक जीवों के एक संख्यातवें भाग प्रमाण जीव प्रति समय उत्पन्न होने वाले मिलते हैं। क्योंकि आवलिका के असंख्यातवें भाग (वर्द्धमान की स्थिति प्रमाण) जितने समयों तक निरन्तर उपपात हुआ फिर नियमा विरह पड़ता ही है। यदि आवलिका के असंख्यातवें भाग में एक-एक नैरयिक को भी उत्पन्न करावें तो पल्योपम जितने काल में उनकी संख्या-पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण हो जाती है। उत्पदयमान नैरयिकों को पल्योपम के असंख्यातवें भाग से गुणा करने पर पूर्वोत्पन्न (अप्रथम समय के) नैरयिकों का परिमाण आ जाता है। उनसे प्रथम समय के देव असंख्यातगुणा। उनसे प्रथम समय के तिर्यंच असंख्यात गुणा। तिर्यंच की अपेक्षा भी देव असंख्यातवें भाग और उनसे नैरयिक असंख्यातवें भाग हैं। अर्थात् तिर्यंच की पूर्ति करने में नारक की अपेक्षा असंख्यातगुणे देव तिर्यंचपने अधिक उत्पन्न होते हैं। इससे यह फलित हुआ कि - उत्पन्न होने वाले देवों की अपेक्षा भी च्यवन होने वाले उत्कृष्ट पद में देव अधिक मिलते हैं। प्रथम समय के तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले नैरयिक मनुष्य व देव होते हैं उनमें से नैरयिक व मनुष्य तो थोड़े ही होते हैं अधिक संख्या की पूर्ति उत्पन्न होने वाले देवों से ही होती है। अल्पबहुत्व में आए हुए छठे से आठवें तक के बोलों का कारण तो पूर्व में आई हुई अल्पबहुत्वों से समझ लेना चाहिए। इस प्रकार आठ तरह के संसारी जीवों का वर्णन करने वाली यह सातवीं प्रतिपत्ति समाप्त हुई। ॥अष्ट विधाख्या नामक सप्तम प्रतिपत्ति समाप्त॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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