Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र
नोपर्याप्तक नो अपर्याप्तक सादि अपर्यवसित है। प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक का अंतर कितने काल का है ?
उत्तर - हे गौतम! जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त। अपर्याप्तक का अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शत पृथक्त्व है। नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक का अन्तर नहीं है। अल्प बहुत्व में सबसे थोड़े नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक हैं, उनसे अपर्याप्तक अनंतगुणा हैं, उनसे पर्याप्तक संख्यातगुणा हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सर्व जीव के तीन भेद कहे गये हैं। यथा - पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक। पर्याप्तक की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त है। यह अपर्याप्तक से पर्याप्तक में उत्पन्न होकर अंतर्मुहूर्त तक रहने के बाद पुन: अपर्याप्तक होने की अपेक्षा से हैं। उत्कृष्ट कायस्थिति साधिक सागरोपम शत पृथक्त्व (दो सौ से लेकर नौ सौ सागरोपम) है इतने काल के बाद नियमा जीव अपर्याप्तक होता है। यह कथन लब्धि अपर्याप्तक की अपेक्षा है। अपर्याप्तक की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है किन्तु जघन्य से उत्कृष्ट पद अधिक है। नोपर्याप्तक-नो अपर्याप्तक सादि अपर्यवसित होने से सदा काल उसी रूप में रहते हैं।
पर्याप्तकाल, अपर्याप्तक का अंतर है और अपर्याप्तकाल पर्याप्तक का अन्तर है। नोपर्याप्तक नो अपर्याप्तक का अंतर नहीं है क्योंकि वे सिद्ध हैं और वे अपर्यवसित हैं।
सबसे थोड़े नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक हैं क्योंकि सिद्ध शेष जीवों की अपेक्षा थोड़े हैं उनसे अपर्याप्तक अनंतगुणा हैं क्योंकि निगोद जीवों में अपर्याप्तक सदैव अनंत मिलते हैं उनसे पर्याप्तक संख्यातगुणा हैं क्योंकि सूक्ष्म जीवों में अपर्याप्तकों से पर्याप्तक संख्यातगुणा हैं।
अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा-सुहमा बायरा णोसुहमणोबायरा, सुहमे णं भंते! सुहमेत्ति कालओ केवच्चिरं०? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज कालं पुढविकालो, बायरा जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेनं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखेजइभागो, णोसुहुमणोबायरे साइए अपज्जवसिए, सुहुमस्स अंतरं बायरकालो, बायरस्स अंतरं सुहमकालो, तइयस्स णोसुहमणोबायरस्स अंतरं णत्थि। अप्पाबहु० सव्वत्थोवा णोसुहुमणोबायरा बायरा अणंतगुणा सुहुमा असंखेजगुणा ॥२५३॥
भावार्थ - अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. सूक्ष्म २. बादर और ३. नोसूक्ष्म-नोबादर।
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