Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 383
________________ ३६६ जीवाजीवाभिगम सूत्र सण्णी णं भंते!० कालओ०? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं साइरेगं, असण्णी जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो, णोसण्णीणोअसण्णी साइए अपजवसिए। सण्णिस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो, असण्णिस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं, तइयस्स णत्थि अंतरं। अप्पाबहु० सव्वत्थोवा सण्णी णोसण्णीणोअसण्णी अणंतगुणा असण्णी अणंतगुणा॥२५४॥ - भावार्थ - अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - संज्ञी (सनी), असंज्ञी और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी। प्रश्न - हे भगवन्! संज्ञी, संज्ञी रूप में कितने काल तक रहता है? . उत्तर - हे गौतम! संज्ञी, संज्ञी रूप में जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शत पृथक्त्व तक रहता है। असंज्ञी, असंज्ञी रूप में जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक रहता है। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी सादि अपर्यवसित है। संज्ञी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। असंज्ञी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शत पृथक्त्व है। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी का अन्तर नहीं है। -- अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े संज्ञी हैं उनसे नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी अनंत गुणा हैं और उनसे असंज्ञी अनन्तगुणा हैं। - विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में तीन प्रकार के सर्व जीवों-संज्ञी, असंज्ञी और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी की कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का कथन किया गया है। कायस्थिति और अन्तर भावार्थ से ही स्पष्ट है। अल्पबहुत्व इस प्रकार समझना चाहिये - सबसे थोड़े संज्ञी हैं क्योंकि देव, नैरयिक, गर्भज तिर्यंच और मनुष्य ही संज्ञी हैं। उनसे नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी अनन्तगुणा हैं क्योंकि वनस्पति को छोड़ कर शेष जीवों से सिद्ध अनन्सगुणा हैं उनसे असंज्ञी अनन्तगुणा हैं क्योंकि सिद्धों से वनस्पतिजीव अनन्तगुणा हैं। _____ अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा-भवसिद्धिया अभवसिद्धिया णोभवसिद्धियाणोअभवसिद्धिया, अणाइया सपजवसिया भवसिद्धिया, अणाइया अपजवसिया अभवसिद्धिया, साइया अपज्जवसिया णोभवसिद्धिया णोअभवसिद्धिया। तिण्डंपि णत्थि अंतरं। अप्याबहु० सव्वत्थोवा अभवसिद्धिया णोभवसिद्धियाणोअभवसिद्धिया अणंतगुणा भवसिद्धिया अणंतगुणा॥२५५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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