Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 394
________________ सर्व जीवाभिगम-सर्व जीव पंचविध वक्तव्यता ३७७ की है क्योंकि उपशांत मोह गुणस्थान का काल इतना ही है। अन्य आचार्य जघन्य अंतर्मुहूर्त की कायस्थिति भी कहते हैं। क्योंकि लोभोपशम के लिए प्रवृत्त जीव का अंतर्मुहूर्त पहले मरण नहीं होता। अन्तर - क्रोध कषायी, मान कषायी और माया कषायी का अन्तर जघन्य एक समय है क्योंकि उपशम समय के बाद मरण होने से पुनः क्रोध आदि का उदय संभव है। उत्कृष्ट अंतर अंतर्मुहूर्त का है। लोभ कषायी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त है किन्तु जघन्य से उत्कृष्ट का अंतर्मुहूर्त बड़ा है। सादि अपर्यवसित अकषायी का अंतर नहीं, सादि सपर्यवसित अकषायी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त है इसके बाद पुनः श्रेणी लाभ हो सकता है। उत्कृष्ट अन्तर अनंतकाल का है अनंतकाल यानी क्षेत्र से देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त जितना है। इतने काल के पश्चात् नियमा अकषायी होता है। .. अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े अकषायी हैं क्योंकि सिद्ध भगवान् एवं ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान वाले मनुष्य ही अकषायी हैं, उनसे मान कषायी अनंतगुणा हैं क्योंकि सिद्धों से भी निगोद जीव अनंत हैं। उनसे क्रोध कषायी विशेषाधिक हैं क्योंकि क्रोध कषाय का उदय चिरकाल स्थायी है, उनसे माया कषायी विशेषाधिक हैं और उनसे लोभ कषायी विशेषाधिक हैं क्योंकि क्रोध से माया और लोभ का उदय चिरतरकाल स्थायी है। - अहवा पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा-णेरइया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा सिद्धा। सचिट्ठणांतराणि जह हेट्ठा भाणियाणि। अप्पाबहुयं सव्वत्थोवा मणुस्सा णेरइया असंखेजगुणा देवा असंखेजगुणा सिद्धा अणंतगुणा तिरिया अणंतगुणा। सेत्तं पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता॥ २६२॥ ॥चउत्था स० प० समत्ता॥ भावार्थ - अथवा सर्व जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य, देव और सिद्ध। संचिट्ठणा और अंतर पूर्वानुसार समझ लेना चाहिये। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनुष्य, उनसे नैरयिक असंख्यातगुणा, उनसे देव असंख्यातगुणा, उनसे सिद्ध अनंतगुणा और उनसे तिर्यंच अनंतगुणा हैं। इस प्रकार पंचविध सर्वजीव प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। .विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सर्व जीवों के पांच भेद कहे गये हैं - १. नैरयिक २. तिर्यंच ३. मनुष्य ४. देव और ५. सिद्ध। इन पांच भेदों की कायस्थिति, अन्तर और अल्प बहुत्व का कथन पूर्व में जैसा कहा गया है तदनुसार समझ लेना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422