Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 396
________________ सर्व जीवाभिगम-सर्व जीव षड्विध वक्तव्यता ३७९ प्रश्न - हे भगवन् ! अवधिज्ञानी, अवधिज्ञानी रूप में कितने काल तक रह सकता है ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है। प्रश्न - हे भगवन्! मनःपर्यवज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी रूप में कितने काल तक रह सकता है? .. उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक रह सकता है। प्रश्न - हे भगवन्! केवलीज्ञानी, केवलज्ञानी रूप में कितने काल तक रह सकता है? उत्तर - हे गौतम! केवलज्ञानी सादि अपर्यवसित है। अज्ञानी तीन प्रकार के कहे गये हैं। यथा - १. अनादि अपर्यवसित २. अनादि सपर्यवसित ३. सादि सपर्यवसित। इनमें से जो सादि सपर्यवसित है वह जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनंतकालदेशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त तक रहता है। आभिनिबोधिक ज्ञानी का अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनंतकाल-देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी का अन्तर कह देना चाहिये। केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है। सादि सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। ___ अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनःपर्यवज्ञानी हैं, उनसे अवधिज्ञानी असंख्यातगुणा हैं, उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं और दोनों स्वस्थान तुल्य हैं। उनसे केवलज्ञानी अनंतगुणा हैं और उनसे अज्ञानी अनन्तगुणा हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सर्व जीवों के छह भेद कहे गये हैं - १. आभिनिबोधिक ज्ञानी २. श्रुतज्ञानी ३. अवधिज्ञानी ४. मनःपर्यवज्ञानी और ५. केवलज्ञानी ६. अज्ञानी। इनकी कायस्थिति, अंतर और अल्पबहुत्व इस प्रकार है - कायस्थिति - आभिनिबोधिकज्ञानी (मतिज्ञानी) की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त की है। क्योंकि सम्यक्त्व का जघन्य काल इतना ही है। उत्कृष्ट कायस्थिति साधिक छियासठ सागरोपम की है जो दो बार विजय आदि में जाने की अपेक्षा समझनी चाहिये। श्रुतज्ञानी की कायस्थिति मतिज्ञानी के समान है क्योंकि कहा है - --- ... 'जत्थ अभिणियोहिय गाणं तत्थ् सुयणाणं, जत्थ सुयणाणं तत्थ आभिणिबोहियणाणं, दो वि एयाई अण्णोण्णमणुगयाई' _- जहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान (मतिज्ञान) है वहाँ श्रुतज्ञान है और जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान है। ये दोनों अन्योन्य-अनुगत हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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