Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 399
________________ ३८२ जीवाजीवाभिगम सूत्र जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त तक रह सकता है। तैजस शरीरी दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - अनादि अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित। इसी तरह कार्मण शरीरी के विषय में भी समझना चाहिये। अशरीरी सादि अपर्यवसित है। ____ औदारिक शरीर का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम का है। वैक्रिय शरीर का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनंतकाल वनस्पतिकाल है आहारक शरीर का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनंतकाल, देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त रूप है। तैजस कार्मण शरीरी का अंतर नहीं है। अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े आहारक शरीरी, उनसे वैक्रिय शरीरी असंख्यातगुणा, उनसे औदारिक शरीरी असंख्यातगुणा, उनसे अशरीरी अनंतगुणा और उनसे तैजस कार्मणं शरीरी अनंतगुणा और स्वस्थान में दोनों परस्पर तुल्य हैं। इस प्रकार सर्व जीव की षड्विध प्रतिपत्ति समाप्त हुई। . विवेचन - सर्व जीव छह प्रकार के कहे गये हैं - औदारिक शरीरी, वैक्रिय शरीरी, आहारक शरीरी, तैजस शरीरी, कार्मण शरीरी और अशरीरी। इनकी कायस्थिति, अंतर, अल्पबहुत्व इस प्रकार है कायस्थिति - औदारिक शरीरी की कायस्थिति जघन्य दो समय कम क्षुल्लक भव ग्रहण की है। विग्रहगति में शुरू के दो समय में कार्मण शरीरी होने से दो समय कम कहा है। उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यातकाल की अर्थात् अंगुल के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाशं प्रदेशों को प्रति समय एकएक करके निकालने पर जितने समय में वह खाली हो जाये उतने काल की है। वैक्रिय शरीरी की कायस्थिति जघन्य एक समय की है। क्योंकि विकुर्वणा के अनन्तर समय में किसी का मरण संभव है। उत्कृष्ट कायस्थिति अंतर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम की कही है। वैक्रिय शरीर बनाया हुआ तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य (जिन्होंने अपने भव के अन्तर्मुहूर्त पहले ही वैक्रिय शरीर बनाया है) काल करके सातवीं नरक में तेतीस सागरोपम की स्थिति में उत्पन्न होता है उसकी अपेक्षा समझना चाहिए। वैक्रिय करने वाला प्रमत्त जीव ही होता है वह मरकर अनुत्तर विमान में नहीं जाता है। अतः यह स्थिति नैरयिकों की अपेक्षा ही समझनी चाहिये। ___ आहारक शरीरी की जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति अंतर्मुहूर्त की है। तैजस शरीरी और कार्मण शरीरी दो प्रकार के कहे हैं यथा - अनादि अपर्यवस्ति - जो कभी मुक्ति प्राप्त नहीं करेंगे और अनादि सपर्यवसित (मोक्ष में जाने वाले) ये दोनों अनादि और अपर्यवसित होने से इनकी काल मर्यादा नहीं है। अशरीरी सादि अपर्यवसित होने से सदा उसी रूप में रहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422