Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 405
________________ ३८८ जीवाजीवाभिगम सूत्र : •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• आभिणिबोहियणाणिस्स णं भंते! अंतरं कालओ०? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवढं पोग्गलपरियट्टं देसूणं, एवं सुयणाणिस्सवि, ओहिणाणिस्सवि, मणपजवणाणिस्सवि, केवलणाणिस्स णं भंते! अंतरं०? गोयमा! साइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं। मइअण्णाणिस्स णं भंते! अंतरं०? गोयमा! अणाइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं, अणाइयस्स सपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं, साइयस्स सपज्जवसियस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छाव४ि सागरोवमाई साइरेगाई, एवं सुयअण्णाणिस्सवि, विभंगणाणिस्स णं भंते! अंतरं०? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो॥ एएसि णं भंते! आभिणिबोहियणाणीणं सुयणाणीणं ओहि० मण' केवल. मइअण्णाणीणं सुयअण्णाणीणं विभंगणाणीणं य कयरे०? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मणपजवणाणी, ओहिणाणी असंखेजगुणा, आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी एए दोवि तुल्ला विसेसाहिया, विभंगणाणी असंखेज्जगुणा, केवलणाणी अणंतगुणा, मइ अण्णाणी सुयअण्णाणी य दोवि तुल्ला अणंतगुणा॥२६७॥ भावार्थ - जो ऐसा प्रतिपादित करते हैं कि सर्व जीव आठ प्रकार के हैं। उनके अनुसार आठ भेद इस प्रकार कहे गये हैं - आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी। प्रश्न - हे भगवन्! आभिनिबोधिक ज्ञानी, आभिनिबोधिक ज्ञानी रूप में कितने काल तक रह सकता है? उत्तर - हे गौतम! आभिनिबोधिक ज्ञानी आभिनिबोधिक ज्ञानी रूप में जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से साधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है। श्रुतज्ञानी की कायस्थिति भी इतनी है। अवधिज्ञानी, अवधिज्ञानी रूप में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है। मनःपर्यवज्ञानी जघन्य एक समय उत्कृष्ट देशोन पूर्व कोटि तक रहता है। केवलज्ञानी सादि अपर्यवसित होने से सदाकाल उसी रूप में रहता है। मतिअज्ञानी तीन प्रकार के कहे गये हैं - १. अनादि अपर्यवंसित २. अनादि सपर्यवसित और ३. सादि सपर्यवसित। सादि सपर्यवसित मतिअज्ञानी की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनंतकाल-देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन रूप है। श्रुतअज्ञानी की कायस्थिति इतनी है। विभंगज्ञानी की कायस्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम की है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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