Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
सर्व जीवाभिगम-सर्व जीव चतुर्विध वक्तव्यता
३७३
चक्षुदर्शनी का अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। अचक्षुदर्शनी का अन्तर नहीं। अवधिदर्शनी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। केवलदर्शनी का अन्तर नहीं है।
. अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अवधिदर्शनी, उनसे चक्षुदर्शनी असंख्यातगुणा हैं, उनसे केवलदर्शनी अनंतगुणा हैं और उनसे अचक्षुदर्शनी अनंतगुणा हैं।
विवेचन - चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी के भेद से सर्व जीव चार प्रकार के कहे गये हैं। इनकी कायस्थिति, अंतर और अल्पबहुत्व इस प्रकार है -
कायस्थिति - चक्षुदर्शनी की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त की कही है। यह अचक्षुदर्शनी से निकल कर चक्षुदर्शनी में अंतर्मुहूर्त काल रह कर पुन: अचक्षुदर्शनी में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। उत्कृष्ट साधिक एक हजार सागरोपम तक चक्षुदर्शनी चक्षुदर्शनी रूप में रह सकता है। अचक्षुदर्शनी दो प्रकार के कहे हैं - अनादि अपर्यवसित-जो कभी सिद्धि प्राप्त नहीं करेगा और अनादि सपर्यवसित, भव्य जीव जो सिद्धि प्राप्त करेगा दोनों की काल मर्यादा नहीं है। अवधिदर्शनी की जघन्य कायस्थिति एक समय की है। अवधिदर्शन प्राप्त करने के पश्चात् कोई एक समय में ही काल कर जाय अथवा मिथ्यात्व में जाने से या दुष्ट अध्यवसाय के कारण अवधि से गिर सकता है। उत्कृष्ट साधिक दो छियासठ सागरोपम की कायस्थिति इस प्रकार समझनी चाहिये -
बारहवें देवलोक में तथा ग्रैवेयक में जो मनुष्य विभंगज्ञान लेकर जावे वहां से अवधि लेकर वापिस मनुष्य में आवे, ऐसे तीन भव बारहवें स्वर्ग के तथा प्रथम ग्रैवेयक के करने से ६६ सागर झाझेरे विभंग के साथ अवधिदर्शन के हुए। फिर अनुत्तर विमान के ३३ सागर के दो भव करे, या ग्रैवेयकादि के तीन भव करने से अवधिज्ञान के साथ ६६ सागर झाझेरे हुए। इस प्रकार दो ६६ सागर तथा मनुष्य भव की स्थिति गिनने से झाझेरे हो जाते हैं। इस प्रकार आगम पाठ की उचित संगति बहुश्रुत गुरु भगवंत फरमाते हैं। जिसका खुलासा समर्थ समाधान भाग १ के पृष्ठ १४७ के प्रश्न नं. ३३२ में किया गया है। इस प्रकार अवधिदर्शनी दो छियासठ सागरोपम तक उत्कृष्ट अवधिदर्शनी के रूप में रह सकता है। सादि अपर्यवसित होने से केवलदर्शनी की कायस्थिति नहीं होती है।
. अंतर - चक्षुदर्शनी का अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट वनस्पतिकाल, इतने काल में अचक्षुदर्शन का व्यवधान होकर पुनः चक्षुदर्शनी हो सकता है। अनादि अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित अचक्षुदर्शनी का अंतर नहीं है क्योंकि एक बार अचक्षुदर्शन जाने के बाद पुनः अचक्षुदर्शन नहीं होता, जिसके घातीकर्म नष्ट हो गये उसका प्रतिपात नहीं होता। अवधिदर्शनी का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का है। केवलदर्शनी का अंतर नहीं है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org