Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अट्ठमा णवविहपडिवत्ती
नवविधाख्या अष्टम प्रतिपत्ति सातवीं प्रतिपत्ति में आठ प्रकार के संसार समापनक जीवों का वर्णन करने के पश्चात् सूत्रकार इस आठवीं प्रतिपत्ति में नव प्रकार के संसार समापनक जीवों का प्रतिपादन करते हैं, जिसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
तत्थ णं जे ते एवमाहंसु-णवविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तंजहा-पुढविक्काइया आउक्काइया तेउक्काइया वाउक्काइया वणस्सइकाइया बेइंदिया तेइंदिया चउरिदिया पंचेंदिया॥ ठिई सव्वेसिं भाणियव्वा॥
भावार्थ - जो आचार्य आदि नौ प्रकार के संसार समापनक जीवों का प्रतिपादन करते हैं। वे नौ भेद इस प्रकार कहते हैं - १. पृथ्वीकायिक २ अप्कायिक ३. तेजस्कायिक ४. वायुकायिक ५. वनस्पतिकायिक ६. बेइन्द्रिय ७. तेइन्द्रिय ८. चउरिन्द्रिय और ९. पंचेन्द्रिय। सबकी स्थिति कह देनी चाहिये। .. विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में संसारी जीवों के नौ भेद कहे गये हैं। इन नौ भेदों की जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार कही गई है - पृथ्वीकायिक की बाईस हजार वर्ष, अप्कायिक की सात हजार वर्ष, तेजस्कायिक की तीन अहोरात्रि, वायुकायिक की तीन हजार वर्ष, वनस्पतिकायिक की दस हजार वर्ष, बेइन्द्रिय की बारह वर्ष, तेइन्द्रिय की उनपचास (४९) दिन, चउरिन्द्रिय की छह मास और पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है।
पुढविक्काइयाणं संचिट्ठणा पुढविकालो जाव वाउक्काइयाणं, वणस्सईणं वणस्सइकालो, बेइंदिया तेइंदिया चउरिदिया संखेनं कालं, पंचेंदियाणं सागरोवमसहस्सं साइरेगं॥अंतरं सव्वेसिं अणंतं कालं, वणस्सइकाइयाणं असंखेजं कालं॥
भावार्थ - पृथ्वीकायिकों का संचिट्ठणकाल पृथ्वीकाल है इसी तरह यावत् वायुकायिक तक कह देना चाहिये। वनस्पतिकाय का संचिट्ठणकाल वनस्पतिकाल (अनन्तकाल) है। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय की संचिट्ठणा संख्यातकाल की और पंचेन्द्रियों की संचिट्ठणा साधिक हजार सागरोपम की कही गई है। सभी का अंतर अनन्तकाल है और वनस्पतिकायिक जीवों का अंतरकाल असंख्यातकाल समझना चाहिये।
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