Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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सर्व जीवाभिगम - द्विविध वक्तव्यता
अंतर्मुहूर्त ही है। उत्कृष्ट अभाषक का काल वनस्पति काल कहा है । वनस्पतिकाल अनंत उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप है। क्षेत्र से अनंत लोकाकाश के प्रदेशों को प्रति समय एक एक निकालने पर जितना काल उसे खाली होने में लगता है उतना काल है । यह असंख्यात पुद्गल परावर्त रूप है। ये पुद्गल परावर्त आवलिका के असंख्यातवें भागवर्ती समयों के बराबर है। जीव वनस्पतिकाय में इतने काल तक अभाषक रूप में रह सकता है।
भासगस्स णं भंते! केवइकालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणतं कालं वणस्सइकालो । अभासग० साइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं, साइयसपज्जवसियस्स जहणणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । अप्पाबहुयंसव्वत्थोवा भासगा अभासगा अनंतगुणा ॥ अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णते, तंजा - ससरीरी य असरीरी य० असरीरी जहा सिद्धा, सव्वत्थोवा असरीरी, ससरीरी अतगुणा ॥ २४८ ॥
भावार्थ- प्रश्न हे भगवन्! भाषक का अन्तर कितना कहा गया है ?
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उत्तर - हे गौतम! जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनंतकाल यानी वनस्पतिकाल ।
सादि अपर्यवसित अभाषक का अंतर नहीं है। सादि सपर्यवसित अभाषक का अंतर जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त है।
अल्प बहुत्व में सबसे थोड़े भाषक हैं, अभाषक उनसे अनंतगुणा हैं । अथवा सर्व जीव दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा - सशरीरी और अशरीरी । अशरीरी की कायस्थिति आदि सिद्धों के समान और सशरीरी की कायस्थिति आदि असिद्धों के समान कहना चाहिये यावत् अशरीरी थोड़े हैं, उनसे सशरीरी अनंतगुणा हैं।
विवेचन अभाषक का जो रहने का काल है वही भाषक का अंतर है अर्थात् भाषक का अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल - वनस्पतिकाल है। सादि अपर्यवसित अभाषक का अन्तर नहीं है। सादि सपर्यवसित अभाषक का अंतर जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त्त है क्योंकि भाषक का यही काल है।
सशरीरी और अशरीरी की वक्तव्यता क्रमशः असिद्धों एवं सिद्धों के समान समझनी चाहिये।
अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा- चरिमा चेव अचरिमा चेव ॥ चरिमे णं भंते! चरिमेत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! चरिमे अणाइए सपज्जवसिए, अचरिमे
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