Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र ............................••••••••••••••••••••••••••••••••••• प्रतिमाओं को अक्षत, श्वेत और दिव्य देवदूष्य-युगल पहनाता है और श्रेष्ठ, प्रधान गंधों से, माल्यों से उन्हें पूजता है, पूज कर फूल चढाता है, गंध चढाता है, मालाएं चढाता है, वर्णक-केसर आदि चूर्ण और आभरण चढाता है। फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई विपुल और गोल बड़ी-बड़ी मालाएं चढाता है। तत्पश्चात् स्वच्छ, सफेद, रजतमय और चमकदार चावलों से जिनप्रतिमाओं के आगे आठआठ मंगलों का आलेखन करता है। वे आठ मंगल हैं - स्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण। आठ मंगलों का आलेखन करके कचग्राह से गृहीत और करतल से मुक्त होकर बिखरे हुए पांच वर्षों के फूलों से पुष्पोपचार (फूल पूजा) करता है। चन्द्रकांत मणि, वज्रमणि और वैडूर्यमणि से युक्त निर्मल दण्ड वाले, कंचन मणि और रत्नों से विविध रूपों में चित्रित, काला अगुरु श्रेष्ठ कुंदरुक्क और लोभान के धूप की उत्तम गंध से युक्त, धूप की वाती को छोड़ते हुए वैडूर्यमय कडुच्छक को लेकर सावधानी के साथ धूप देकर सात आठ पांव पीछे सरक कर जिनवरों की एक सौ आठ विशुद्ध ग्रंथ (शब्द संदर्भ युक्त) महाछंदों वाले, अर्थ युक्त और अपुनरुक्त स्तोत्रों से स्तुति करता है। स्तुति करके बायें घुटने को ऊंचा रख कर तथा दायें घटने को जमीन से लगा कर तीन बार अपने मस्तक को जमीन पर नमाता है फिर थोड़ा ऊँचा उठा कर अपनी कटक और त्रुटित (बाजुबन्द) से स्तंभित भुजाओं को संकुचित कर हाथ जोड़ कर मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोलता है - 'नमस्कार हो अरिहंत भगवंतों को यावत् . जो सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त हुए हैं। ऐसा कह कर वंदन करता है नमस्कार करता है।
विवेचन - यद्यपि जीवाभिगम और रायप्पसेणईय सूत्र की उपलब्ध प्रतियों में 'णमोत्थुणं' का पाठ उपलब्ध होता है। परन्तु वह पाठ प्रक्षिप्त मालूम पड़ता है। क्योंकि वहाँ के संदर्भ को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि 'प्रतिमार्चन को वे धार्मिक आध्यात्मिक (आत्मा को उन्नत करने वाला) कृत्य नहीं मानते हैं, परन्तु देवलोक में मंगल रूप होने से जिस तरह भरतादि चक्रवर्ती चक्रार्चन करते हैं वैसे ही सूर्याभ आदि विमानों तथा विजयादि राजधानियों में उत्पन्न होने वाले समकिती मिथ्यात्वी सभी देव उत्पन्न होते ही सामानिक देवों द्वारा तथा पुस्तक रत्न द्वारा वहाँ के पूर्व पश्चात् कर्तव्यों का ज्ञान करके जन्मोत्सव के समय में एक बार भरतादि चक्रवर्तियों के चक्रार्चनवत् प्रतिमार्चन करते हैं। चक्रार्चन और प्रतिमार्चन में 'णमोत्थुणं' के सिवाय सभी विधि समान ही है। इससे प्रतिमार्चन में णमोत्थुणं' का पाठ आना संदर्भ के अनुरूप प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि मंगल रूप होने से प्रतिमार्चन तो समकिती, मिथ्यात्वी दोनों प्रकार के देव करते हैं। विधि दोनों के लिए समान है। इसलिए जो प्रतिमार्चन विधि में सिद्धों को नमस्कार करने रूप और स्तवन करने रूप 'णमोत्थुणं' भी सम्मिलित होवे तो मिथ्यात्वी देव इस विधि को यथावत् संपादन नहीं करते, परन्तु मिथ्या देवों के लिए भी प्रतिमार्चन की पूर्ण विधि का विधान है। इसलिए प्रतिमार्चन विधि में णमोत्थुणं' नहीं होना चाहिए।
यदि ऐसा कहे कि मिथ्यात्वी देव मंगल कृत्य तथा जीताचार समझ कर ‘णमोत्थुणं' का पाठ
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