Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र
पिणद्धगेवेजविमलवरचिंधपट्टा - ग्रैवेयक-ग्रीवाभरण और विमल सुभट चिह्नपट्ट को धारण किये हुए, गहियाउहप्पहरणा - आयुधों और शस्त्रों को ग्रहण किये हुए, तिणयाइं- तीन स्थानों (आदि, मध्य और अन्त) में नमे हुए, तिसंधीणि - तीन संधियों वाले, वइरामया कोडीणि - वज्रमय कोटि वाले, परियाइयकंडकलावा - नाना प्रकार के बाणों से भरे हुए तूणीर वाले, चावपाणिणो - हाथों में धनुष है, चारुपाणिणो - हाथों में चारु-प्रहरण विशेष है, रक्खोवगा - रक्षा करने में दत्तचित्त, गुत्ता - गुप्त-स्वामी का भेद प्रकट नहीं करने वाले, किंकरभूयाविव - किंकर भूत-किंकर नहीं किन्तु शिष्टाचारवश विनम्र हैं।
भावार्थ - वे आत्मरक्षक देव लोहे की कीलों से युक्त कवच को शरीर पर कस कर पहने हुए हैं, धनुष की पट्टिका को मजबूती से पकड़े हुए हैं, उन्होंने गले में ग्रैवेयक और विमल सुभट चिह्नपट्ट को धारण कर रखा है, आयुधों और शस्त्रों को ग्रहण कर रखा है, आदि मध्य और अंत इन तीन स्थानों में नमे हुए, तीन संधियों वाले और वज्रमय कोटि वाले धनुषों को लिये हुए हैं, उनके तूणीरों में नाना प्रकार के बाण भरे हैं। किन्हीं के हाथ में नीले बाण हैं, किन्हीं के हाथ में पीले बाण हैं, किन्हीं के हाथों में लाल बाण है, किन्हीं के हाथों में धनुष है, किन्हीं के हाथों में चारु है, किन्हीं के हाथों में चर्म-अंगूठों और अंगुलियों का आच्छादन रूप है, किन्हीं के हाथों में दण्ड है, किन्हीं के हाथों में तलवार हैं, किन्हीं के हाथों में पाश (चाबुक) है और किन्हीं के हाथों में उक्त सब शस्त्र आदि हैं। वे आत्म-रक्षक देव रक्षा करने में दत्तचित्त हैं, गुप्त हैं, उनके सेतु दूसरों के द्वारा गम्य नहीं है, वे युक्त हैं (सेवक गुणोपेत हैं) उनके सेतु परस्पर संबद्ध हैं - बहुत दूर नहीं हैं। वे अपने आचरण और विनय से मानो किंकरभूत हैं। ___तएणंसेविजएदेवेचउण्हंसामाणियसाहस्सीणंचउण्हंअग्गमहिसीणंसपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्ख देवसाहस्सीणं विजयस्स णं दारस्स विजयाए रायहाणीए, अण्णेसिं च बहूणं विजयाए रायहाणीए वत्थव्वगाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणा-ईसर-सेणावच्चंकारेमाणेपालेमाणेमहयाहयणट्ट-गीय-वाइय-तंती-तल-तालतुडिय-घण-मुइंग-पडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोग-भोगाइं भुंजमाणे विहरइ। . भावार्थ - तब वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदों, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्म-रक्षक देवों का तथा विजय द्वार, विजया राजधानी एवं विजया राजधानी के निवासी बहुत से देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवर्तित्व, स्वामित्व, भट्टित्व, महत्तरकत्व, आज्ञा-ईश्वर-सेनाधिपतित्व करता हुआ और सब का पालन करता
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