Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तृतीय प्रतिपत्ति - वैजयंत आदि द्वारों का वर्णन
हुआ, जोर से बजाए हुए वाद्यों, नृत्य, गीत, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित, घन मृदंग आदि की ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगता हुआ रहता है।
विजयस्स णं भंते! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?
गोयमा ! एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता ।
विजयस्स णं भंते! देवस्स सामाणियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता, एवं महिड्डिए एवं महज्जुइए एवं महब्बले
एवं महायसे एवं महासुक्खे एवं महाणुभागे विजए देवे विजए देवे ॥ १४३ ॥
भावार्थ - हे भगवन्! विजयदेव की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
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हे गौतम! विजयदेव की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है।
हे भगवन् ! विजयदेव के सामानिक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
हे गौतम! विजयदेव के सामानिक देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है।
इस प्रकार वह विजयदेव ऐसी महर्द्धि वाला, महाद्युति वाला, महाबल वाला, महायश वाला, महासुख वाला और ऐसा महान् प्रभावशाली है।
विवेचन - विजयद्वार का विस्तृत वर्णन करने के बाद सूत्रकार अब वैजयंत आदि द्वारों का वर्णन करते हैं।
वैजयंत आदि द्वारों का वर्णन
कहिणं भंते! जंबुद्दीवस्स २ वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते ?
गोयमा ! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई अबाहाए जंबुद्दीवदीवदाहिणपेरंते लवणसमुद्ददाहिणद्धस्स उत्तरेणं एत्थ णं जंबुद्दीवस्स २ वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते अट्ठ जोयणाई उड्डुं उच्चत्तेणं सच्चेव सव्वा वत्तव्वया जाव णिच्चे । कहि णं भंते!० रायहाणी ? दाहिणेणं जाव वेजयंते देवे २ ॥
भावार्थ - हे भगवन्! जंबूद्वीप नामक द्वीप का वैजयंत नाम का द्वार कहां कहा गया है ?
हे गौतम! जंबूद्वीप में मेरुपर्वत के दक्षिण में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर जंबूद्वीप की दक्षिण दिशा के अंत में तथा दक्षिण दिशा के लवण समुद्र से उत्तर में यह जंबूद्वीप का वैजयंत नाम का द्वार कहा गया है। यह आठ योजन ऊँचा और चार योजन चौड़ा है, आदि सारा वर्णन विजय द्वार के अनुसार कह देना चाहिये यावत् वह वैजयंत द्वार नित्य है ।
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