Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
३०६
जीवाजीवाभिगम सूत्र
समाधान - निगोद का अर्थ है - अनन्त जीवों का एक शरीर। वृताकार और वृहत्प्रमाण होने से इस लोक में निगोद के असंख्यात गोले कहे गये हैं। कहा भी है -
गोला य असंखेजा, असंखनिगोदो य गोलओ भणिओ। एक्किक्कंमि निगोए अणंत जीवा मुणेयव्वा॥१॥ एक एक गोले में असंख्यात निगोद है और एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं। शंका - निगोद में जीवों का जन्म मरण चक्र किस प्रकार चलता है ? समाधान - टीका में कहा गया है - एगो असंखभागो वट्टइ उव्वट्टणोववायम्मि। एगणिगोदे णिच्चं एवं सेसेसु वि स एव॥२॥ अंतोमहत्तमेत्तं ठिई निगोयाण जंति णिहिट्ठा। पल्लटंति णिगोया तम्हा अंतोमुहुत्तेणं॥३॥
अर्थ - एक निगोद में जो अनंत जीव हैं उनका असंख्यातवां भाग प्रतिसमय उसमें से निकलता है और दूसरा असंख्यातवां भाग वहाँ उत्पन्न होता है। प्रत्येक समय यह उद्वर्तन और उत्पत्ति चलती रहती है। जैसे एक निगोद में यह उद्वर्तन और उत्पत्ति का क्रम चलता रहता है उसी प्रकार सर्वलोक में निगोदों में उद्वर्तन और उत्पत्ति का यह क्रिया प्रति समय चलती रहती है इसलिए सभी निगोदो और निगोद जीवों की स्थिति अंतर्मुहूर्त कही है। सभी निगोद अंतर्मुहूर्त मात्र समय में, प्रतिसमय होने वाले उद्वर्तन एवं उपपति के कारण परिवर्तित हो जाते हैं किन्तु वे जीवों से शून्य नहीं होते क्योंकि पुराने जीव निकलते रहते हैं और नये उत्पन्न होते रहते हैं।
उपर्युक्त टीकाकार के द्वारा उद्धृत गाथाओं में तथा उनके अर्थ में प्रत्येक निगोदवर्ती जीवों का एक असंख्यातवां भाग का उपपात और उद्वर्तन प्रति समय होना बताया है। परन्तु प्रज्ञापना आदि सूत्रों के पाठों को देखते हुए यह उचित नहीं लगता है। लोक में जितने निगोद हैं उन सभी निगोदों के एक असंख्यातवें भाग जितने निगोदशरीरों का प्रति समय उपपात और उद्वर्तन होना समझना चाहिए। एक निगोद वर्ती सभी जीवों का जन्म मरण एक साथ में ही होता है। ऐसा आगमों में बताया है। अतः टीकाकार का कथन आगम से बाधित होने से उपर्युक्त आगम पाठों के अनुसार मानना ही समीचीन है।
सुहुमे णं भंते! सुहुमेत्ति कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेजकालं जाव असंखेजा लोया, सव्वेसिं पुढविकालो जाव सुहमणिओयस्स पुढविक्कालो, अपजत्तगाणं सव्वेसिं जहण्णेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, एवं पजत्तगाणवि सव्वेसिं जहण्णेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं ॥ २३१॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org