Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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षष्ठ प्रतिपत्ति
रइयदेवदेवीणं जच्चेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणा । तिरिक्खजोणिए णं भंते! तिरिक्खजोणिएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो, तिरिक्खजोणिणीणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाइं । एवं मणुस्सस्स मणुस्सीएवि ॥
भावार्थ - नैरयिक और देवों की तथा देवियों की जो भवस्थिति है वही उनकी संचिट्ठणा (कायस्थिति) है।
प्रश्न - हे भगवन् ! तिर्यंच कितने काल तक तिर्यंच रूप में रह सकता है ?
उत्तर - हे गौतम! तिर्यंच की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल (अनंत काल) है । तिर्यंच स्त्री की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्ण कोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है। इसी प्रकार मनुष्यों और मनुष्य स्त्रियों की कार्यस्थिति (संचिट्ठणा) भी समझनी चाहिये ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सात प्रकार के जीवों की संचिट्टणा (कायस्थिति) का कथन किया गया है। नैरयिकों, देवों और देवियों की जितनी भवस्थिति है उतनी ही उनकी कायस्थिति (संचिट्टणा) है क्योंकि देव, नैरयिक मरकर अनन्तर भव में देव या नैरयिक नहीं होते । तिर्यंचों की कायस्थिति जघन्य . अंतर्मुहूर्त्त उत्कृष्ट वनस्पतिकाल (अनन्तकाल ) है । यह अनन्तकाल, काल से अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रमाण है । क्षेत्र से असंख्यात लोकाकाश प्रदेशों को प्रतिसमय एक एक निकालने पर जितने समय में वे खाली हो उतने काल प्रमाण हैं तथा आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय है। उतने पुद्गल परावर्त और असंख्यात पुद्गल परावर्त प्रमाण वह अनंतकाल है। तिर्यंच स्त्रियों की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम की है। पूर्व कोटि आयुष्य वाले निरन्तर सात भव करे और आठवें भव में देवकुरु आदि में उत्पन्न हो उस अपेक्षा से उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम का काल होता है। मनुष्य और मनुष्य स्त्री की काय स्थिति भी इतनी ही समझनी चाहिये ।
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यहाँ पर 'पूर्वकोटि पृथक्त्व' शब्द से सात करोड़ पूर्व वर्षों को समझना चाहिये ।
णेरइयस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो । एवं सव्वाणं तिरिक्खजोणियवज्जाणं, तिरिक्खजोणियाणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं ॥
भावार्थ - नैरयिकों का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । इसी प्रकार
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