Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 340
________________ पंचम प्रतिपत्ति - अल्पबहुत्व ३२३ प्रदेश की अपेक्षा से - सबसे थोड़े बादर निगोद जीव पर्याप्तक, उनसे बादर निगोद जीव अपर्याप्तक असंख्यातगुणा, उनसे सूक्ष्म निगोद जीव अपर्याप्तक असंख्यातगुणा, उनसे सूक्ष्म निगोद जीव पर्याप्तक संख्यातगुणा। द्रव्य-प्रदेश की अपेक्षा से - सबसे थोड़े बादर निगोद जीव पर्याप्तक द्रव्य की अपेक्षा, उनसे बादर निगोद जीव अपर्याप्तक असंख्यातगुणा द्रव्य की अपेक्षा, उनसे सूक्ष्म निगोद जीव अपर्याप्तक असंख्यातगुणा द्रव्य की अपेक्षा, उनसे सूक्ष्म निगोद जीव पर्याप्तक संख्यातगुणा द्रव्य की अपेक्षा, उनसे बादर निगोदजीव पर्याप्तक असंख्यातगुणा प्रदेश की अपेक्षा, उनसे बादर निगोद जीव अपर्याप्तक असंख्यातगुणा प्रदेश की अपेक्षा, उनसे सूक्ष्म निगोद जीव अपर्याप्तक असंख्यातगुणा प्रदेश की अपेक्षा, उनसे सूक्ष्म निगोद जीव पर्याप्तक संख्यातगुणा प्रदेश की अपेक्षा। निगोद जीवों की उपर्युक्त अल्प बहुत्व में - "णवरि संकमए जाव सुहम णिओय जीवेहितो पजत्तएहितो दव्वट्ठयाए बायर णिओय जीवा पजत्ता पदेसट्ठयाए असंखेजगुणा" बताया है। इससे आगमकार (अठाणु बोल में से) चौरासीवें बोल के जीव द्रव्यों से सत्तहतरवें बोल के जीव प्रदेश असंख्यातगुणा हैं, यह बता रहे हैं। (७७वें बोल के जीव - लोकाकाश प्रदेश-७७ वें बोल के जीवों के आत्म-प्रदेश) इस पाठ से यह ध्वनित होता है कि - '७७ वें बोल के जीवों से ८४ वें बोल के जीव - जो असंख्यातगुणा बताए गये हैं वह असंख्यगुणाकार राशि-लोकाकाश-प्रदेशों के असंख्यातवें भाग जितना ही समझना चाहिये।' इस प्रकार मानने से ही ८४ वें बोल के जीव द्रव्यों से ७७ वें बोल के जीव प्रदेश असंख्यगुण हो सकते हैं। अत: यह फलित हुआ कि - '७७ वें बोल से ७९ वां बोल लोकाकाश के अत्यल्प असंख्यातवें भाग के असंख्य प्रदेशों जितना असंख्यातगुणा होगा। इससे ८२ वां बोल भी वैसा ही असंख्यातगुणा समझना चाहिए। इससे ८४ वाँ बोल संख्यातगुणा हैं। इस प्रकार दो बार असंख्यातगुण वृद्धि, चार बार विशेषाधिक वृद्धि एवं एक बार, संख्यातगुणा की वृद्धि की जाने पर भी ७७ वें बोल से ८४ वां बोल लोकाकाश प्रदेशों के असंख्यातवें भाग जितना ही गुण वृद्धि वाला हुआ है। यहाँ पर 'संक्रमण' का अर्थ - 'द्रव्यार्थ की अल्प बहुत्व से प्रदेशार्थ की अल्प बहुतत्व में संक्रामित होना' उचित लगता है। ऊपर निगोदों की अल्प बहुत्व में - प्रदेशार्थ में संक्रमण करते हुए अनन्तगुणा कहा था, किन्तु यहाँ शरीर प्रदेश नहीं होकर जीव प्रदेश होने से असंख्यातगुणा ही कहना चाहिए। यह इसका आशय प्रतीत होता है। इसी अल्प बहुत्व में - पर्याप्त सूक्ष्म निगोद के जीव प्रदेशों से पर्याप्त बादर निगोद के प्रदेश अनन्तगुणा बताये हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि - "आगमकार यहाँ पर पर्याप्तक निगोद शब्द से मात्र औदारिक शरीर का ग्रहण नहीं करके तैजस कार्मण शरीर का एवं उन्हीं में समाविष्ट योग, लेश्या आदि का भी ग्रहण करते हैं।" क्योंकि मात्र औदारिक शरीर के प्रदेश लेने पर अनन्तगुणा संभव नहीं है। एक औदारिक शरीर में सिद्धों के अनंतवें भाग जितने प्रदेश ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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