Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
तृतीय प्रतिपत्ति - विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक
११५
तए णं तस्स विजयस्स देवस्स दाहिणपुरत्थिमेणं अब्भिंतरियाए परिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ पत्तेयं २ जाव णिसीयंति। एवं दक्खिणेणं मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ जाव णिसीयंति। दाहिणपच्चत्थिमेणं बाहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पत्तेयं २ जाव णिसीयंति। तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पच्चत्थिमेणं सत्त अणियाहिवई पत्तेयं २ जाव णिसीयंति। तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पुरथिमेणं दाहिणेणं पच्चत्थिमेणं उत्तरेणं सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ पत्तेयं २ पुव्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति, तंजहा-पुरस्थिमेणं चत्तारि साहस्सीओ जाव उत्तरेणं ४॥
भावार्थ - तब उस विजयदेव के चार हजार सामानिक देव पश्चिमोत्तर, उत्तर और उत्तरपूर्व में पहले से रखे हुए चार हजार भद्रासनों पर अलग अलग बैठते हैं। उस विजयदेव की चार अग्रमहिषियाँ पूर्व दिशा में पहले से रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठती हैं। उस विजयदेव के दक्षिण पूर्व दिशा में आभ्यंतर परिषद् के आठ हजार देव अलग अलग पूर्व में रखे हुए भद्रासनों पर बैठते हैं।
उस विजयदेव की दक्षिण दिशा में मध्यम परिषद् के दस हजार देव पहले से रखे हुए अलगअलग भद्रासनों पर बैठते हैं। दक्षिण-पश्चिम दिशा में बाह्य परिषद् के बारह हजार देव पहले से रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं।
- उस विजय देव के पश्चिम दिशा में सात अनीकाधिपति पूर्व में रखे हुए अलग अलग भद्रासनों पर बैठते हैं। उस विजयदेव के पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में सोलह हजार आत्मरक्षक देव पहले से ही रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं। पूर्व दिशा में चार हजार आत्मरक्षक देव, दक्षिण में चार हजार आत्मरक्षक देव, पश्चिम में चार हजार आत्मरक्षक देव और उत्तर में चार हजार आत्मरक्षक देव पहले से रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं।
ते णं आयरक्खा सण्णद्धबद्धवम्मियकवया उप्पीलियसरासणपट्टिया पिणद्धगेवेजविमलवरचिंधपट्टा गहियाउहप्पहरणा तिणयाई तिसंधीणि वइरामया कोडीणि धणइं अभिगिज्झ परियाइयकंडकलावा णीलपाणिणो पीयपाणिणो रत्तपाणिणो चावपाणिणो चारुपाणिणो चम्मपाणिणो खग्गपाणिणो दंडपाणिणो पासपाणिणो णीलपीयरत्तचावचारुचम्मखग्गदंडपासवरधरा आयरक्खा रक्खोवगा गुत्ता गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्तेयं २ समयओ विणयओ किंकरभूयाविव चिटुंति॥
कठिन शब्दार्थ - सण्णद्धबद्धवम्मियकवया - कवच को शरीर पर कस कर पहने हुए, उप्पीलियसरासणपट्टिया - धनुष की पट्टिका-मुष्टि ग्रहण स्थान को मजबूती से पकड़े हुए,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org