Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तृतीय प्रतिपत्ति - लवण समुद्र, लवण समुद्र क्यों कहलाता है?
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हे गौतम! एक द्वार से दूसरे द्वार का अंतर तीन लाख पिचानवे हजार दो सौ अस्सी (३९५२८०) योजन और एक कोस का है।
हे भगवन्! क्या लवण समुद्र के प्रदेश धातकीखंड से स्पृष्ट-छुए हुए हैं ?
हाँ गौतम! लवण समुद्र के प्रदेश धातकीखंड से छुए हुए हैं आदि वर्णन जंबूद्वीप के समान ही कह देना चाहिये। धातकीखंड के प्रदेश भी लवण समुद्र से छुए हुए हैं आदि कथन पूर्वानुसार समझ लेना चाहिये।
क्या लवण समुद्र से मरकर जीव धातकीखंड में पैदा होते हैं ? आदि कथन भी पूर्वानुसार समझ लेना चाहिये और धातकीखंड से मरकर लवण समुद्र में पैदा होने के विषय में भी पूर्वानुसार कथन कर देना चाहिये।
विवेचन - लवण समुद्र के एक-एक द्वार की पृथुता चार-चार योजन की है। एक एक द्वार में एक एक कोस मोटी दो शाखाएं हैं। एक द्वार की पूरी पृथुता साढे चार योजन की है। इस तरह चारों द्वारों की पृथुता अठारह योजन की है। ये अठारह योजन लवण समुद्र की परिधि (१५,८१,१३९ योजन से कुछ कम) में से घटा कर चार का भाग देने पर एक द्वार से दूसरे द्वार का अंतर ३,९५,२८० योजन और एक कोस आता है। कहा भी है -
असीया दोन्नि सया पणनउइसहस्स तिण्णिलक्खा य। - कोसेय अंतरं सागरस्स दाराणं विन्नेयं ॥१॥
___लवण समुद्र, लवण समुद्र क्यों कहलाता है? ... सेकेणटेणं भंते! एवं वुच्चइ लवणसमुद्दे लवणसमुद्दे ? । ____ गोयमा! लवणे णं समुद्दे उदगे आविले रइले लोणे लिंदे खारए कडुए अप्पेजे बहूणं दुपयचउप्पयमियपसुपक्खि-सरीसिवाणं णण्णत्थ तज्जोणियाणं सत्ताणं, सुट्ठिए एत्थ लवणाहिवई देवे महिड्डिए पलिओवमट्टिइए, से णं तत्थ सामाणिय जाव लवणसमुदस्स सुट्ठियाए रायहाणीए अण्णेसिं जाव विहरइ, से एएणतुणं गोयमा! एवं वुच्चइ लवणे णं समुद्दे लवणे णं समुद्दे, अदुत्तरं च णं गोयमा! लवणसमुद्दे सासए जाव णिच्चे॥१५४॥
कठिन शब्दार्थ - आविले - अस्वच्छ (गुदला), रइले - रजवाला, लोणे - नमक के स्वाद वाला, लिंदे - लिन्द्र-गोबर जैसे स्वाद वाला, अप्पेज्जे - अपेय।
'भावार्थ - हे भगवन् ! लवण समुद्र, लवण समुद्र क्यों कहलाता है ?
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