Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र +000000000000000000000000000000000000000000000000000000•••••••••
कठिन शब्दार्थ - पविसंताणं - प्रवेश करते हुए, तावक्खेत्तं - ताप क्षेत्र, णिक्खमंताणं - बाहर निकलते हुए।
भावार्थ - सर्व बाह्यमंडल से आभ्यंतर मंडल में प्रवेश करते हुए चन्द्र और सूर्य का तापक्षेत्र नियम से क्रमश: बढ़ता जाता है और जिस क्रम से बढ़ता है उसी क्रम से सर्व आभ्यंतर मंडल से बाहर निकलने पर चन्द्र और सूर्य का तापक्षेत्र प्रतिदिन क्रमशः घटता जाता है।
तेसिं कलंबुयापुप्फसंठिया होइ तावखेत्तपहा। अंतो य संकुया बाहिं वित्थडा चंदसूरगणा॥ १५॥
भावार्थ - उन चन्द्र सूर्यों के ताप क्षेत्र का मार्ग कदंब पुष्प के आकार जैसा है। यह मेरु की दिशा में संकुचित है और लवण समुद्र की दिशा में विस्तृत है।
केणं वड्डइ चंदो परिहाणी केण होइ चंदस्स। कालो वा जोण्हो वा केणऽणुभावेण चंदस्स?॥ १६॥
भावार्थ - प्रश्न -हे भगवन् ! चन्द्रमा शुक्ल पक्ष में क्यों बढ़ता है और कृष्णपक्ष में क्यों घटता है ? किस कारण से कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष होते हैं ?
किण्हं राहुविमाणं णिच्चं चंदेण होइ अविरहियं। चउरंगुलमप्पत्तं हिट्ठा चंदस्स तं चरइ॥ १७॥
भावार्थ - उत्तर - हे गौतम! कृष्ण वर्ण का राहुविमान चन्द्रमा से सदैव चार अंगुल दूर रह कर चन्द्र विमान के नीचे चलता है। इस तरह चलता हुआ वह शुक्ल पक्ष में धीरे धीरे चन्द्रमा को प्रकट करता है और कृष्ण पक्ष में धीरे धीरे उसे ढक लेता है।
विवेचन - राहु दो प्रकार का होता है - १. पर्व राहु और २. नित्य राहु। जो राहु कदाचित् अकस्मात् आ कर अपने विमान से चन्द्र विमान को या सूर्य विमान को ढक लेता है वह पर्व राहु है। इस पर्व राहु को ही लोक में ग्रहण कहा जाता है। उसका यहां ग्रहण. नहीं है। यहां तो नित्य राहु का ग्रहण किया गया है जिसका विमान काला है और जो चन्द्र विमान के नीचे चार अंगुल की दूरी पर उसके साथ सदा चलता रहता है। जब यह उसके विमान को ढक लेता है तो कृष्ण पक्ष कहलाता है और जब यह उसके विमान को नहीं ढकता है तो शुक्ल पक्ष कहलाता है। शुक्लपक्ष में धीरे धीरे चन्द्र का विमान उसके आवरण से रहित होता है और कृष्ण पक्ष में धीरे धीरे वह उसके आवरण से युक्त होता है।
बावटुिं बावढेि दिवसे दिवसे उ सुक्कपक्खस्स। जं परिवड्डइ चंदो खवेइ तं चेव कालेणं॥ १८॥
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