Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र ............................................................
छावत्तरं गहाणं पंतिसयं होइ मणुयलोगंमि। छावट्ठी छावट्ठी य होइ एक्केक्कया पंती॥९॥ भावार्थ - इन मनुष्य लोक में ग्रहों की १७६ पंक्तियां हैं। एक एक पंक्ति में ६६-६६ ग्रह हैं।
ते मेरु परियडंता पयाहिणावत्तमंडला सव्वे। अणवट्ठियजोगेहिं चंदा सूरा गहगणा य॥१०॥
कठिन शब्दार्थ - परियडंता - प्रदक्षिणा करते हैं, पयाहिणावत्तमंडला - प्रदक्षिणा वर्तमण्डल, अणवट्ठियजोगेहिं - अनवस्थित-यथायोग रूप से।
भावार्थ - ये चन्द्र सूर्यादि सब ज्योतिषी मेरु पर्वत के चारों ओर प्रदक्षिणा करते हैं। प्रदक्षिणा करते हुए इन चन्द्रादि के दक्षिण में ही मेरु होता है अतएव इन्हें प्रदक्षिणावर्तमण्डल कहा है। मनुष्य लोक के सभी चन्द्र सूर्य आदि प्रदक्षिणावर्तमण्डल गति से ही परिभ्रमण करते हैं। चन्द्र सूर्य और ग्रहों . के मण्डल अनवस्थित हैं क्योंकि यथायोग रूप से अन्य मण्डल पर ये परिभ्रमण करते रहते हैं।
विवेचन - ज्योतिषी के सभी विमान पूर्व में उदय होकर पश्चिम में अस्त होते हैं। अतः पूर्व से दक्षिण में होते हुए गमन करते हैं। इसलिए प्रदक्षिणावर्त से मेरु की प्रदक्षिणा करना बताया है। यहां सर्वत्र मेरु शब्द से जम्बूद्वीप के मध्यवर्ती मेरु पर्वत को ही समझना चाहिए।
णक्खत्ततारगाणं अवट्ठिया मंडला मुणेयव्वा। तेऽविय पयाहिणावत्तमेव मेरुं अणुचरंति॥११॥
भावार्थ - नक्षत्र और ताराओं के मण्डल अवस्थित हैं अर्थात् ये नियतकाल तक एक मण्डल में रहते हैं। ये भी मेरु पर्वत के चारों ओर प्रदक्षिणावर्तमण्डल गति से परिभ्रमण करते हैं।
विवेचन - नक्षत्रों के आठ मंडल है। उसमें से जो नक्षत्र जिस मंडल पर रहता है उस नक्षत्र का विमान हमेशा उसी मंडल पर चलता रहने के कारण इन मण्डलों को अवस्थित कहा है। लेकिन देव तो सभी के अनवस्थित हैं। जितने तारे हैं उतने ही तारा मंडल हैं। वे सभी (ग्रह नक्षत्र तारा) दक्षिणायन उत्तरायण भ्रमण नहीं करने के कारण इनको अवस्थित कहे हैं। यहां 'णक्खत्त तारगाणं' शब्द से नक्षत्रों के तारे ऐसा अर्थ समझना चाहिए। ग्रहों के आठ और तारा के दो मंडलों का उल्लेख आगम में नहीं आया है। टीकाकार का कथन है कि - ग्रह आदि की वक्रानुवक्र गति होने से इनके भी वक्रानुरूप मंडल होना संभव है। जिनके आधार से ही ग्रहण आदि का ज्ञान किया जाता है किन्तु आठ या दो मंडलों का होना नहीं समझा जाता है। कुछ तारे एक स्थान पर ही घुमते हैं जैसे ध्रुव तारा आदि। अन्य सभी मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं। ताराओं के चाल की नियतता आगमों में नहीं मिलती है। इनकी वक्र गति भी होती है किन्तु जम्बू द्वीप की सीमा में रहे हुए तारा लवण समुद्र की सीमा में जाना संभव नहीं
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