Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तृतीय प्रतिपत्ति - गौतमद्वीप का वर्णन
१६१
भावार्थ - यह गौतम द्वीप एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है। यहां दोनों का वर्णन कह देना चाहिये।
गौतमद्वीप के अंदर यावत् बहुसमरमणीय भूमिभाग है। उस का भूमिभाग मुरज (मृदंग) के मढे हुए चमड़े की तरह समतल है आदि सब वर्णन कहना चाहिये यावत् वहां बहुत से वाणव्यंतर देव और देवियां उठती बैठती है आदि। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य भाग में लवणाधिपति सुस्थित देव का एक विशाल अतिक्रीडावास नामक भौमेय विहार है जो साढे बासठ योजन ऊंचा और सवा इकतीस योजन चौड़ा है, अनेक सौ स्तंभों पर सुस्थित है आदि भवन का सारा वर्णन कह देना चाहिये।
अतिक्रीडावास नामक भौमेय विहार में बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है यावत् मणियों के स्पर्श तक का वर्णन समझना चाहिये।
तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ एगा मणिपेढिया पण्णत्ता। सा णं मणिपेढिया दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणबाहल्लेणं सव्वमणिमई अच्छा जाव पडिरूवा। तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एत्थ णं देवसयणिजे पण्णत्ते वण्णओ॥से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ-गोयमदीवे दीवे २? गोयमा! गोयमदीवे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहूइं उप्पलाइं जाव गोयमप्पभाई से एएणटेणं गोयमा! जाव णिच्चे। कहि णं भंते! सुट्टियस्स लवणाहिवइस्स सुट्टिया णामं रायहाणी पण्णत्ता? गोयमा! गोयमदीवस्स पच्चत्थिमेणं तिरियमसंखेजे जाव अण्णंमि लवणसमुद्दे बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, एवं तहेव सव्वं णेयव्वं जाव सुट्टिए देवे॥ १६१॥ - भावार्थ - उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक मणिपीठिका है। वह मणिपीठिका दो योजन लम्बी चौड़ी, एक योजन की मोटी और सर्वात्मना मणिमय है, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक देवशयनीय है। उसका वर्णन पूर्वानुसार समझ लेना चाहिये।
हे भगवन् ! वह गौतमद्वीप, गौतमद्वीप क्यों कहलाता है ?
हे गौतम! गौतमद्वीप में स्थान स्थान पर (यहां वहां) बहुत से उत्पल कमल आदि हैं जो गौतमगोमेद रत्न की आभा एवं वर्ण वाले हैं इसलिये यह गौतम द्वीप कहलाता है यावत् गौतमद्वीप नाम शाश्वत नित्य है।
हे भगवन् ! लवणाधिपति सुस्थित देव की सुस्थिता नामक राजधानी कहां है ?
हे गौतम! गौतमद्वीप के पश्चिम में तिरछे असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार करने पर अन्य लवण समुद्र में सुस्थिता राजधानी है जो बारह हजार योजन आगे जाने पर आती है इत्यादि सारा कथन राजधानी के समान समझना चाहिये यावत् वहां सुस्थित नाम का महर्द्धिक देव है।
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