Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तृतीय प्रतिपत्ति - लवण समुद्र की उद्वेध परिवृद्धि आदि
१७५ •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• चिटुंति? गोयमा! बाहिरएसु णं समुद्देसु बहवे उदगजोणिंया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति विउक्कमति चयंति उवचयंति, से तेणटेणं एवं वुच्चइ-बाहिरगा समुद्दा पुण्णा पुण्ण जाव समभरघडत्ताए चिटुंति॥१६९॥
: भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या लवण समुद्र में बहुत से बड़े मेघ सम्मूर्छिम जन्म के अभिमुख होते हैं, पैदा होते हैं अथवा वर्षा वर्षाते हैं ?
उत्तर - हाँ गौतम! लवण समुद्र में बहुत से बड़े मेघ सम्मूर्छिम जन्म के अभिमुख होते हैं यावत् वर्षा वर्षाते हैं।
प्रश्न - हे भगवन् ! जैसे लवण समुद्र में बहुत से बड़े मेघ पैदा होते हैं और वर्षा बरसाते हैं वैसे बाहर के समुद्रों में भी बहुत से मेघ पैदा होते हैं और वर्षा बरसाते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। - प्रश्न - हे भगवन्! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि बाहर के समुद्र पूर्ण हैं, पूरे पूरे भरे हुए हैं, मानो बाहर छलकना चाहते हैं, विशेष छलकना चाहते हैं और लबालब भरे हुए घट के समान जल से परिपूर्ण हैं ?
उत्तर - हे गौतम! बाहर के समुद्रों में बहुत से उदक योनि के जीव आते जाते हैं और बहुत से पुद्गल उदक के रूप में एकत्रित होते हैं विशेष रूप से एकत्रित होते हैं इसलिये ऐसा कहा जाता है कि बाहर के समुद्र पूर्ण हैं, पूरे पूरे भरे हुए हैं यावत् लबालब भरे हुए घट के समान जल से परिपूर्ण हैं।
. लवण समुद्र की उद्वेध परिवृद्धि आदि ___लवणे णं भंते! समुद्दे केवइयं उव्वेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते? ..
गोयमा! लवणस्स णं समुदस्स उभओ पासिं पंचाणरइ पंचाणउइ पएसे गंता पएसं उव्वेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते, पंचाणउइ पंचाणउइ वालग्गाई गंता वालग्गं उव्वेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते, एवं पं० २ लिक्खाओ गंता लिक्खं उव्वेहपरि० जूया० जवमझे० अंगुल० विहत्थि० रयणी० कुच्छी० धणु० उव्वेहपरिवुड्डीए प०, गाउय० जोयण जोयणसय० जोयणसहस्साइं गंता जोयणसहस्सं उव्वेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते॥
कठिन शब्दार्थ - उव्वेहपरिवुड्डीए - उद्वेध परिवृद्धि-गहराई में वृद्धि, वालग्गाई - बालाग्र, विहत्थि - वितस्ति (बेंत), रयणी - रत्लि (हाथ), कुच्छी - कुक्षि, गाऊय - गाऊ (कोस)।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! लवण समुद्र की उद्वेध परिवृद्धि (गहराई की वृद्धि) किस क्रम से है ? अर्थात् कितनी दूर जाने पर कितनी गहराई की वृद्धि होती है ?
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