Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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- तृतीय प्रतिपत्ति - स्वयंभूरमण द्वीप के चन्द्र सूर्य द्वीप
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भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! स्वयंभूरमण समुद्र के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहां कहे गये हैं ?
उत्तर - हे गौतम! स्वयंभूरमण समुद्र के पूर्वी वेदिकान्त से स्वयंभूरमण समुद्र में पश्चिम की ओर बारह हजार योजन आगे जाने पर ये द्वीप आते हैं आदि सारा वर्णन पूर्वानुसार कह देना चाहिये। इसी तरह स्वयंभूरमण समुद्र के सूर्यों के विषय में भी समझना चाहिये। विशेषता यह है कि स्वयंभूरमण समुद्र के पश्चिमी वेदिकान्त से स्वयंभूरमण समुद्र में पूर्व की ओर बारह हजार योजन आगे जाने पर सूर्यों के सूर्यद्वीप आते हैं। इनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पूर्व में स्वयंभूरमण समुद्र में असंख्यात हजार योजन आगे जाने पर आती है यावत् वहां सूर्यदेव हैं। ___ अस्थि णं भंते! लवणसमुद्दे वेलंधराइ वा णागरायाइ वा खण्णाइ वा अग्बाइ वा सिंहाइ वा विजाईइ वा हासवट्टीइ वा? हंता अत्थि। जहा णं भंते! लवणसमुद्दे अस्थि वेलंधराइ वा णागराया० अग्घा० सिंहा० विजाईइ वा हासवट्टीइ वा तहा णं बाहिरएसुवि समुद्देसु अत्थि वेलंधराइ वा णागरायाइ वा० अग्बाइ वा सीहाइ वा विजाईइ वा हासवट्टीइ वा? णो इणद्वे समटे॥१६८॥
. भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या लवण समुद्र में वेलंधर नागराज हैं? क्या खन्ना, अग्घा, सीहा, विजाति मच्छप कच्छप हैं? क्या जल की वृद्धि और ह्रास है ?
उत्तर - हाँ, गौतम हैं।
प्रश्न - हे भगवन् ! जैसे लवण समुद्र में वेलंधर नागराज हैं, अग्घा, खन्ना, सीहा, विजाति मच्छप कच्छप है, वैसे क्या अढाई द्वीप के बाहर भी ये सब हैं ?
उत्तर - हे गौतम! बाह्य समुद्रों में ये सब नहीं है। ‘विवेचन - उपर्युक्त मूल पाठ में आये हुए अग्घा आदि शब्दों के अर्थ टीका व चूर्णि में 'मच्छ कच्छप विशेष' किया है किन्तु आगम से तो ऐसा अर्थ स्पष्ट नहीं होता है। संभावना है कि लम्बे समय से इन शब्दों के अर्थ की परम्पराएं नष्ट हो गई होगी। यदि इनका अर्थ 'मत्स्य कच्छप विशेष' ही किया जाय तब एक ही कुल के अवान्तर भेद समझने से स्वयंभूरमण समुद्र में भी सभी कुलों के होने पर भी किसी कुल के अवान्तर भेद नहीं होने पर भी आगम से बाधा नहीं आती है। ... इस संबंध में गुरु भगवंतों का फरमाना यह है कि - अग्घा, खन्ना आदि नामों को लवपा समुद्र में ही बताये हैं अत: अधिक संभावना यह की जाती है कि ये नाम लवण समुद्र के प्रक्षुभितोदक संबंधी ही या वेला से संबंधित ही कोई स्थितियां होना संभव है। क्योंकि स्वयंभूरमण समुद्र में सब जाति (कुल) के मच्छ, कच्छप आदि होते हैं अत: टीका एवं चूर्णि का अर्थ संगत नहीं लगता है। तत्त्व केवली गम्य।
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