Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तृतीय प्रतिपत्ति - कंचन पर्वत का वर्णन
उस कमल के पश्चिमोत्तर में, उत्तर में और उत्तरपूर्व में नीलवंतद्रह के नागकुमारेन्द्र नागकुमार राज के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार पद्मरूप आसन कहे गये हैं । इसी तरह सब परिवार के योग्य पद्मरूप आसनों का कथन कर देना चाहिये।
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वह कमल अन्य तीन पद्मवर परिक्षेप से सब ओर से घिरा हुआ है वे इस प्रकार हैं- आभ्यंतर, मध्यम और बाह्य | आभ्यंतर पद्मपरिक्षेप में बत्तीस लाख पद्म हैं, मध्यम पद्मपरिक्षेप में चालीस लाख पद्म हैं और बाह्य पद्मपरिक्षेप में अड़तालीस लाख पद्म हैं। इस प्रकार सब पद्मों की संख्या एक करोड़ बीस लाख कही गई है।
विवेचन - उपर्युक्त वर्णन में तीन पद्मवर परिक्षेपों को बताया गया है । परन्तु उन पद्मों (कमलों) के तीन परिक्षेपों में सभी कमल समाविष्ट नहीं होते हैं । अतः प्रत्येक परिक्षेप के एक या डेढ़ गोला लेने चाहिये। सूत्र में तो सरीखे आकार वाले होने से तीन परिक्षेप कह दिये गये हैं। उनका आशय उपर्युक्त रूप से समझना चाहिये ।
सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ - णीलवंतद्दहे दहे ?
गोयमा ! णीलवंतद्दहे णं दहे तत्थ तत्थ० जाई उप्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताइं णीलवंतष्पभाई णीलवंतवण्णाभाई णीलवंतद्दहकुमारे य एत्थ देवे जमगदेवगमो से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव णीलवंतदहे २, णीलवंतस्स णं रायहाणी पुव्वाभिलावेणं एत्थ सो चेव गमो जाव णीलवंते देवे २ ॥ १४९॥
भावार्थ- हे भगवन् ! नीलवंत द्रह, नीलवंतद्रह क्यों कहलाता है ?
हे गौतम! नीलवंतद्रह में यहां वहां स्थान स्थान पर नीलवर्ण के उत्पल कमल यावत् शतपत्र सहस्रपत्र कमल खिले हुए हैं तथा वहां नीलवंत नामक नागकुमारेन्द्र नागकुमार राज महर्द्धिक देव रहता है इस कारण नीलवंतद्रहं नीलवंतद्रह कहा जाता है। नीलवंत देव की नीलवंता राजधानी का वर्णन विजया राजधानी के समान कह देना चाहिये यावत् नीलवंत देव उनके अधिपति हैं। इस कारण नीलवंतदेव नीलवंत देव कहलाते हैं।
कंचन पर्वत का वर्णन
णीलवंतद्दहस्स णं० पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं दस जोयणाइं अबाहाए एत्थ णं दस दस कंचणगपव्वया पण्णत्ता, ते णं कंचणगपव्वया एगमेगं जोयणसयं उड्डुं उच्चत्तेणं पणवीसं पणवीसं जोयणाई उव्वेहेणं मूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं मज्झे पण्णत्तरिं जोयणाई (आयाम) विक्खंभेणं उवरि पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं मूले तिण्णि
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