Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
तृतीय प्रतिपत्ति - विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक
१०५
सुरभिणा गंधोदएणं ण्हाणेइ २ त्ता दिव्वाए सुरभिगंधकासाइएणं गायाइं लूहेइ २ त्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाणिं अणुलिंपइ अणुलिंपेत्ता जिणपडिमाणं अहयाई सेयाई दिव्वाइं देवदूसजुयलाई णियंसेइ णियंसेत्ता अग्गेहिं वरेहि य गंधेहि य मल्लेहि य अच्चेइ २ त्ता पुप्फारुहणं गंधारुएणं मल्लारुहणं वण्णारुहणं चुण्णारुहणं आभरणारुहणं करेइ २ त्ता आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्धारियमल्लदाम कलावं करेइ २त्ता अच्छेहि सण्हेहिं( सेएहिं) रययामएहिं अच्छरसातंदुलेहिं जिणपडिमाणं पुरओ अट्ठमंगलए आलिहइ सोत्थियसिरिवच्छ जाव दप्पण अट्ठट्ठमंगलए आलिहइ २ त्ता कयग्गाहग्गहियकरतल-पब्भट्ठ-विप्पमुक्केणं दसद्धवण्णेणं कुसुमेणं मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं करेइ २ त्ता चंदप्पभवइरवेरुलिय विमलदंडं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदुरुक्क-तुरुक्कधूवगंधुत्तमाणुविद्धं धूमवट्टि विणिम्मुयंतं वेरुलियामयं कडुच्छुयं पग्गहित्तु पयत्तेणं धूवं दाऊण सत्तट्ठपयाई ओसरइ सत?पयाई ओसरित्ता जिणवराणं अट्ठसय-विसुद्ध-गंधजुत्तेहिं महावित्तेहिं अत्थजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं संथुणइ २ त्ता वामं जाणुं अंचेइ २ त्ता दाहिणं जाणुं धरणितलंसि णिवाडेइ तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि णमेइ णमित्ता ईसिं पच्चुण्णमइ २ त्ता कडयतुडियyभियाओ भुयाओ पडिसाहरइ २ त्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासी-णमोऽत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्ताणं तिकट्ट वंदइणमंसइ।
कठिन शब्दार्थ - णियंसेइ - पहनाता है, पुप्फारोहणं - पुष्पारोपणं-फूल चढाये, इसिं पच्चुण्णमइ- कुछ ऊँचा उठाया।
- भावार्थ - तब वह विजयदेव चार हज़ार सामानिक देवों के साथ यावत् अन्य बहुत सारे वाणव्यंतर देवों और देवियों के साथ और उनसे घिरे हुए सब प्रकार की ऋद्धि और सब प्रकार की द्युति के साथ यावत् वाद्यों की गूंजती हुई ध्वनि के बीच जिस ओर सिद्धायतन था उस ओर जाता है और सिद्धायतन की प्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से सिद्धायतन में प्रवेश करता है और जहां देवच्छंदक था वहाँ आता है और जिन प्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम करता है फिर लोमहस्तक लेकर जिन प्रतिमाओं का प्रमार्जन करता है और सुगंधित गंधोदक से उन्हें नहलाता है, दिव्य सुगंधित गंधकाषायिक से उनके अवयवों को पौंछता है, सरस गोशीर्ष चंदन का उनके अंगों पर लेप करता है फिर जिन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org