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जैन - लक्षणावली
सम्यग्दर्शन से द्रव्य - पर्यायों को देखता है - श्रद्धा करता है, ज्ञान से जानता है तथा चारित्र से दोषों को दूर करता है ।
८.
सागार और अनगार के भेद से संयमचरण दो प्रकार का है। दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त, रात्रिभक्त, ब्रह्म, ग्रारम्भ, परिग्रह, अनुमनन और उद्दिष्ट इन ग्यारह प्रतिमाओं का यहां संक्षेप में निर्देश करते हुए इस सब प्राचरण को देशविरत ( सागारचारित्र ) कहा गया है। आगे पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का उल्लेख करके सागारसंयमचरण को समाप्त किया गया है । यहाँ इतना विशेष है कि गुणव्रतों में दिशा-विदिशामान, अनर्थदण्डवर्जन और भोगोपभोगपरिमाण को तथा शिक्षाव्रतों में सामायिक, प्रोषध प्रतिथिपूजा और सल्लेखना इन चार को ग्रहण किया गया है ।
दूसरे अनगारसंयमचरण का विचार करते हुए मनोज्ञ व श्रमनोज्ञ सजीव व अजीव द्रव्य के विषय में राग-द्वेष के परिहारस्वरूप पांच इन्द्रियों के संवरण, पांच व्रत, पांच समितियां और तीन गुप्तियां, इन सबको अनगारसंयमचरण कहा गया है । यहाँ अहिंसादि पांच व्रतों का निर्देश करते हुए उनकी पृथक् पृथक् भावनाओं का भी उल्लेल किया गया है । तत्पश्चात् पाँच समितियों का निर्देश करते हुए अन्त में कहा गया है कि जो भब्य जीव स्पष्टतया रचे गये भावशुद्ध इस चारित्रप्राभृत का चिन्तन करते हैं वे शीघ्र ही चतुर्गति परिभ्रमण से छूटकर अपुनर्भव - जन्म मरण से रहित हो जाते हैं । इसके ऊपर भी भ. श्रुतसागरकी टीका है व उसके साथ वह पूर्वोक्त ग्रन्थमाला से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
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टीका - अनुकम्पा, ईर्यासमिति और ऐषणासमिति आदि ।
६. बोधप्राभृत-- इसमें ६२ गाथाएं हैं । यहाँ सर्वप्रथम प्राचार्यों को नमस्कार करते हुए समस्त जनों के प्रबोधनार्थ जिनेन्द्र के उपदेशानुसार षट्कार्य हितकर - छह काय के जीवों के लिए हितकर शास्त्र के (बोधप्राभृत के ) - कहने की प्रतिज्ञा की गई है। तत्पश्चात् प्रायतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, निमुद्रा, आत्मस्थ ज्ञान, अरिहंत के द्वारा दृष्ट देव, तीर्थ, अरिहंत और प्रव्रज्या इन ग्यारह विषयों का यहां अध्यात्म की प्रधानता से विचार किया गया है।
अन्त में ग्रन्थकार कहते हैं कि जिनमार्ग में शुद्धि के लिए जिस प्रकार जिनेन्द्रों ने रूपस्थ - निर्ग्रन्थरूपस्थ आचरण - को कहा है उसी प्रकार से भव्य जनों के बोधनार्थं षट्कायहितंकर को कहा गया है । भाषासूत्रों में जो शब्दविकार हुआ है व उसे जैसा जिनेन्द्र ने कहा है उसे जान करके भद्रबाहु के शिष्य ( कुन्दकुन्द ) ने वैसा ही कहा है। बारह अंगों के ज्ञाता, चौदह पूर्वांगों के विशाल विस्तार से युक्त, और गमकों के गुरु भगवान् श्रुतज्ञानी ( श्रुतकेवली ) भद्रबाहु जयवंत हों । यह भी श्रुतसागर सूरि विरचित टीका के साथ पूर्वोक्त संग्रह में उक्त संस्था से प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ हैमूल - अर्हद्भाव और अर्हन्यादि । टीका - प्रजंगमप्रतिमा आदि ।
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१०. भावप्राभृत- इसमें १६३ गाथायें हैं । यहाँ सर्वप्रथम यही सूचना की गई है कि प्रधान लिंग - साधुत्व की पहिचान भाव है, न कि द्रव्यलिंग - बाह्य वेष । कारण इसका यह है कि गुण और दोषों का कारण भाव ही हैं। बाह्य परिग्रह का जो त्याग किया जाता है वह भावविशुद्धि के लिए ही किया जाता है, अभ्यन्तर परिग्रहस्वरूप मिथ्यात्वादि के त्याग के बिना बाह्य परिग्रह का वह त्याग निष्फल होता है । यदि नग्नता आदिरूप बाह्य लिंग ही प्रमुख होता तो द्रव्य से नग्न तो सभी नारकी और तिर्यंच रहा करते हैं, पर परिणाम से अशुद्ध रहने के कारण क्या वे कभी भावश्रमणता - यथार्थ साधुता - को प्राप्त हुए हैं ? नहीं । मुमुक्षु मुनि प्रथमतः मिथ्यात्वादि दोषों से रहित हो करके भाव से नग्न होता है और तत्पश्चात् जिनाज्ञा के अनुसार द्रव्य से लिंग को —— बाह्य साधुवेष को — प्रकट करता है । जो साधु शरीरादि सब प्रकार के परिग्रह को छोड़कर मान कषायादि से पूर्णतः रहित होता हुग्रा आत्मा में लीन रहता है वह साधुभावलिंगी होता है । स्वर्गसुख और मुक्तिसुख का भोक्ता भाव से ही होता है, भाव से रहित
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