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प्रस्तावना
तात्पर्य. - अक्षरात्मक, अचक्षुदर्शन, अजीव, अधर्मद्रव्य, अपक्रमषट्क और अलोक आदि ।
६. नियमसार - ग्रन्थकार कुन्दकुन्दाचार्य ने यहाँ सर्वप्रथम वीर जिन को नमस्कार करते हुए केवली एवं श्रुतकेवली द्वारा प्रणीत नियमसार के कहने की प्रतिज्ञा की है । फिर 'नियमसार' के शब्दार्थ को प्रगट करते हुए कहा गया कि जो कार्य नियम से किया जाना चाहिए वह नियम कहलाता है । वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र स्वरूप है । इस 'नियम' के साथ जो 'सार' शब्द प्रयुक्त है वह विपरीतता के परिहारार्थ है । यह ज्ञान दर्शन- चारित्रस्वरूप नियम भेद व अभेद विवक्षा से दो प्रकार का है। शुद्ध ज्ञानचेतना परिणामविषयक ज्ञान व श्रद्धा के साथ उसी में स्थिर रहना, यह अभेद रत्नत्रय स्वरूप नियम है । तथा प्राप्त, आगम और तत्त्व के श्रद्धान के साथ जो तद्विषयक राग-द्वेष की निवृत्ति है, यह व्यवहार रत्नत्रय स्वरूप नियम है जो भेदाश्रित है । यह नियम मोक्ष का उपाय है और उसका फल निर्वाण है । इन्हीं तीनों की यहाँ पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की गई है। इस प्रसंग में यहाँ प्रथमतः उक्त सम्यग्दर्शन के विषयभूत प्राप्त, श्रागम और तत्त्व का विवेचन करते हुए प्राप्तप्रणीत तत्वार्थी - जीवादि छह द्रव्यों- का वर्णन किया गया है। इस बीच प्रसंग पाकर पाँच व्रतों, पाँच समितियों और तीन गुप्तियोंरूप व्यवहार चारित्र का निरूपण करते हुए अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु का स्वरूप प्रगट किया गया है। इस प्रकार यहाँ आत्मशोधन में उपयोगी प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, प्रालोचना, प्रायश्चित्त, परमसमाधि, रत्नत्रय और आवश्यक का विवेचन करते हुए शुद्ध ग्रात्म-विषयक विचार किया गया है । ग्रन्थगत गाथाओं की संख्या १८६ है । इस पर पद्मप्रभ मलधारिदेव (वि. सं. १३वीं शताब्दी - १२४२ ) के द्वारा टीका रची गई है। इस टीका के साथ वह जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
છ
मूल - प्रचीर्य महाव्रत, अधर्मद्रव्य, अर्हन्, अहिंसामहाव्रत, आकाश, प्रादाननिक्षेपणसमिति, प्राप्त, ईर्यासमिति और एषणासमिति आदि ।
टीका - अधर्म द्रव्य और आकाश आदि ।
७. दर्शनप्राभृत - इसमें ३६ गाथायें हैं । सर्वप्रथम यहां सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल बता कर यह कहा गया है कि जो जीब सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है उसे भ्रष्ट ही समझना चाहिए, वह कभी मुक्ति को प्राप्त नहीं हो सकता । किन्तु जो चरित्र से भ्रष्ट है, वह समयानुसार मुक्त हो सकता है । सम्यग्दर्शन से रहित जीव घोर तपश्चरण क्यों न करते रहें, परन्तु वे करोड़ों वर्षों में भी बोधि को नहीं प्राप्त कर सकते । जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे ज्ञान और चारित्र से भी भ्रष्ट हैं । ऐसे जीव स्वयं तो नष्ट होते ही हैं, साथ ही दूसरों को भी नष्ट किया करते हैं। यहां सम्यग्दर्शन के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जो छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्त्व इन जिनप्रणीत तत्त्वों के स्वरूप का श्रद्धान करता है उसे सम्यग्दृष्टि समझना चाहिए । यह व्यवहार सम्यक्त्व है । निश्चय से तो प्रात्मा ही सम्यग्दर्शन । आगे कहा गया है कि जो शक्य अनुष्ठान को— जिसे किया जा सकता है—करता है और अशक्य पर श्रद्धा रखता है, उसके सम्यक्त्व है या वह सम्यग्दृष्टि है; ऐसा केवली के द्वारा कहा महिमा को प्रगट किया गया है। इसके ऊपर भट्टारक श्रुतइस टीका के साथ वह 'षट्प्राभृतादिसंग्रह' में मा० दि० जैन इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है - श्राज्ञासम्यक्त्व और उपदेश
गया है । इस प्रकार यहां सम्यग्दर्शन की सागर सूरि के द्वारा टीका रची गई है। ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित हुआ है। सम्यक्त्व आदि ।
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८. चारित्रप्राभृत- इसमें ४४ गाथायें हैं । यहाँ चारित्र के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैंसम्यक्त्वचरणचारित्र और संयमचरणचारित्र । निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, प्रमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये जो सम्यक्त्व के आठ गुण या अंग हैं उनसे विशुद्ध उस सम्यग्दर्शन का जो ज्ञान के साथ प्राचरण किया जाता है इसे सम्यक्त्वचरणचारित्र कहा जाता है । जीव
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