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प्रस्तावना
ऊपर टोका लिखने की आवश्यकता नहीं समझी गई। इसका ग्रन्थप्रमाण ३०००० श्लोक है, जब कि पूर्वोक्त पांच खण्डों का मूल ग्रन्थप्रमाण ६००० श्लोक ही है।
यह छठा खण्ड भारतीय ज्ञानपीठ काशी के द्वारा सात जिल्दों में प्रकाशित किया गया है । इसका उपयोग निम्न शब्दों में हरा है..मूल-प्रकायिक, अजघन्य द्रव्य वेदना, अधःकर्म, आगमभावप्रकृति, प्रागमभावबन्ध, पालापनबन्ध और
आहारद्रव्यवर्गणा आदि। ध. टीका-अकर्मभूमिक, अकषाय, अकृतसमुद्घात, अक्ष (अक्ख), अक्षपकानुपशामक, अक्षरज्ञान, अक्षर
श्रुतज्ञान, अक्षरसमास, अक्षरसंयोग, अक्षिप्र, अक्षीणमहानस, प्रक्षेम, अक्षौहिणी, अश्वकर्णकरण,
असातवेदनीय और असातसमय प्रबद्ध आदि ।
२. कसायपाहुड (कषायप्राभृत)-यह प्राचार्य गुणधर के द्वारा रचा गया है। इसे पेज्जदोस-पाहुड भी कहा जाता है । पेज्ज (प्रेयस्) का अर्थ राग और दोस का अर्थ द्वेष होता है । ये (राग-द्वेष) दोनों चूंकि कषायस्वरूप ही है, अतः उक्त दोनों नाम समान अभिप्राय के सूचक हैं। इसका रचनाकाल सम्भवतः विक्रम की प्रथम शताब्दी से पूर्व है।
- यह परमागम सूत्ररूप गाथानों में रचा गया है। समस्त गाथाओं की संख्या २३३ (मूल गा. १८०+भाष्यगा. १५३) है। इसकी गाथायें दुरूह व अर्थगम्भीर हैं । षट् खण्डागम में जहाँ ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का विवेचन किया गया है वहां प्रस्तुत कसायपाहुड में एक मात्र मोहनीय कर्म का ही व्याख्यान किया गया है । इसमें प्रेयोद्वेषविभक्ति, स्थितिविभक्ति व अनुभागविभक्ति आदि १५ अर्थाधिकार हैं। इसके ऊपर प्राचार्य यतिवृषभ (विक्रम की छठी शताब्दी) प्रणीत ६००० श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र और प्राचार्य वीरसेन व उनके शिष्य जिनसेनाचार्य द्वारा विरचित ६०००० श्लोक प्रमाण जयधवला नाम की टीका है। उक्त टीका को २०००० श्लोक प्रमाण रचने के बाद आचार्य वीरसेन स्वर्गस्थ हो गए। तब उनकी इस अधरी टीका की पूर्ति उनके शिष्य जिनसेनाचार्य के द्वारा की गई है। यह टीका जिनसेन स्वामी के द्वारा शक सं० ७६६ (वि०सं० ८६४) में पूर्ण की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ के अभी तक पूर्वोक्त चूणि और जयधवला टीका के साथ ११ भाग दि० जैन संघ मथुरा के द्वारा प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त केवल उक्त चूणिसूत्रों के साथ वह वीर शासन संघ कलकत्ता द्वारा पृथक से प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है
चूणि-प्रकरणोपशामना, अश्वकर्णकरण और असामान्य स्थिति आदि ।
ज. टीका-प्रकरणोपशामना, अकर्मबन्ध, अकर्मोदय, प्रतिस्थापना, अन्तकृद्दश, अपचयपद और अपवृद्धि आदि ।
३. समयप्राभृत - यह प्राचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा विरचित एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक ग्रन्थ है। कुन्दकुन्दका दूसरा नाम पद्मनन्दी भी रहा है। इनका समय प्रायः विक्रम की प्रथम शताब्दी माना जाता है । ये मूलसंघ के प्रमुख थे और कठोरतापूर्वक निर्मल चारित्र का परिपालन स्वयं करते व संघस्थ अन्य मुनि जनों से भी कराते थे। ये ८४ पाहड ग्रन्थों के कर्ता माने जाते हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में शुद्ध निश्चयनय की प्रधानता से शुद्ध प्रात्मतत्त्व का विचार किया गया है। इसमें ये ६ अधिकार हैं-जीवाजीवाधिकार (प्रथम व द्वितीय रंग), कर्तृ-कर्माधिकार, पुण्य-पापाधिकार, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष और सर्वविशुद्ध ज्ञान । इसकी समस्त गाथासंख्या ४४५ है। इसके ऊपर एक टीका (आत्मख्याति) अमृतचन्द्र सूरि (वि. की १०वीं शती) विरचित और दूसरी (तात्पर्यवृत्ति) प्रा. जयसेन (वि. की १२वीं शती) विरचित है । इसके कई संस्करण निकल चुके हैं। हमारे पास जो संस्करण है वह उक्त दोनों टीकामों के साथ भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था काशी से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हरा है
मूल-अमूढदृष्टि, पालोचन और उपगृहन आदि ।
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