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प्रस्तावना
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(जीव के साथ उसके सम्बद्ध रहने का काल) व अन भाग (फलदानशक्ति) पड़ा करता है। जिस प्रकार ग्राम प्रादि फल अपने समय पर परिपाक को प्राप्त होकर भोक्ता को मिठास व खटाई आदि का अनुभव कराया करते हैं, उसी प्रकार वह कर्म भी अपनी स्थिति के अनुसार उदय (परिपाक) को प्राप्त होने पर सुख-दुःखादि रूप हीनाधिक फल दिया करते हैं । साथ हो जिस प्रकार फलों को पाल में देकर कभी समय से पूर्व भी पका लिया जाता है उसी प्रकार तपश्चरण के द्वारा कर्म को भी स्थिति पूर्ण होने के पूर्व ही उदय को प्राप्त करा लिया जाता है, तथा इसी प्रकार के उत्तम अनुष्ठान से नवीन कर्मबन्ध को भी रोका जा सकता है। इस प्रकार प्राणी अपने सुख-दुःख का विधाता स्वयं है, दूसरा उसका कोई माध्यम नहीं है। जो आत्महितैषी भव्य जीव शरीर और आत्मा के भेद का अनुभव करता हुअा पर में राग-द्वेष नहीं करता है वह संयम का परिपालन करता हना मुक्ति को भी प्राप्त कर लेता है-स्वयं आराध्य या ईश्वर बन जाता है। इस सबका परिज्ञान प्रस्तुत षट्खण्डागम के अध्ययन से प्राप्त किया जा सकता है।
(१) जीवस्थान-यह उक्त षट्खण्डागम का प्रथम खण्ड है। पूर्वोक्त कर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय के प्राश्रय से जीवकी जो परिणति होती है उसका नाम गुणस्थान है, जो मिथ्यात्व व सासादन आदि के भेद से चौदह प्रकार का है। जिन अवस्थाविशेषों के द्वारा जीवों का मार्गण या अन्वेषण किया जाता है उन अवस्थाओं को मार्गणा कहा जाता है। वे चौदह हैं-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और पाहार । प्रकृत जीवस्थान में कौन जीव किस गुणस्थान में है या किन जीवों के कितने गुणस्थान सम्भव हैं, किस-किस गुणस्थानवी जीवों की कितनी संख्या है, कहाँ वे रहते हैं, कहाँ तक जा पा सकते हैं, किस गुणस्थान का कितना काल है, एक गुणस्थान को छोड़कर पुनः उस गुणस्थान की प्राप्ति में कितना काल लग सकता है, किस गुणस्थान में प्रौदयिकादि कितने भाव हो सकते हैं, तथा विवक्षित गुणस्थानवी जीव किस गुणस्थानवी जीवोंसे हीन या अधिक हैं, इस सबका विचार यहां प्रथमतः गुणस्थान के आश्रय से किया गया है। तत्पश्चात् इन्हीं सब बातों का विचार वहां गति व इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं के आधार से भी किया गया है। अन्त में अनेक प्रकार की कर्मप्रकृतियों का निर्देश करते हुए उनकी पृथक्-पृथक स्थिति और उदय में प्राने योग्य काल की चर्चा करते हुए किस पर्याय में कितने व कौन से गुण प्राप्त हो सकते हैं, तथा आयु के पूर्ण होने पर पूर्व शरीर को छोड़कर कौन जीव कहां उत्पन्न हो सकता है, इसका विवेचन किया गया है। इसी प्रसंग में कौन जीव किस प्रकार से सम्यग्दर्शन और चारित्र को प्राप्त कर सकता है, इसकी भी चर्चा यहां की गई है। यह खण्ड शिताबराय लक्ष्मीचन्द जैन साहित्योद्धारक फण्ड अमरावती से प्रारम्भ की ६ जिल्दों में प्रकाशित हुआ है।
(२) क्षुद्रकबन्ध-यहां संक्षेप में बन्धक जीवों की चर्चा की गई है । बन्ध की विस्तृत प्ररूपणा इसके छठे खण्ड महाबन्ध में की गई है। यही कारण जो इसे क्षद्रकबन्ध कहा गया है। पूर्व जीवस्थान खण्ड में जीवों का जो विवेचन गुणस्थानों और मार्गणाओं के आश्रय से किया गया है वह यहां कुछ विशेषताओं के साथ गुणस्थान निरपेक्ष केवल मार्गणाओं के प्राश्रय से इन ११ अनुयोगद्वारों में किया गया है-एक जोव की अपेक्षा स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, नाना जीवों की अपेक्षा काल, नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्वानुगम । यह खण्ड उक्त संस्था द्वारा ७वीं जिल्द में प्रकाशित किया गया है ।
(३) बन्धस्वामित्वविचय-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग के द्वारा जो जीव और कर्मपूदगलों का एकता (अभेद) रूप परिणमन होता है वह बन्ध कहलाता है। किन कर्मप्रकृतियों के बन्ध के कौन जीव स्वामी हैं और कौन नहीं हैं, इसका विचार इस खण्ड में प्रथमतः गुणस्थान के आश्रय से और तत्पश्चात् मार्गणाओं के आश्रय से किया गया है। विवक्षित प्रकृतियों का बन्ध जिस गुणस्थान तक होता है, आगे नहीं होता; उन प्रकृतियों का वहां तक बन्ध और आगे के गुणस्थानों में उनकी बन्धव्युच्छित्ति
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