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भगवान् के निर्वाण के दिन ही अवन्ती में मालवपति चण्डप्रद्योत की मृत्यु हुई। चण्डप्रद्योत के पालक और गोपाल नाम के दो पुत्र थे । राजगद्दी पर पालक बैठा और गोपाल ने श्री सुधर्मास्वामी के पास दीक्षा ली।
भगवान् की पट्टपरम्परा भगवान् के नौ गणधर भगवान् की विद्यमानता में ही निर्वाण पा चुके थे। ज्येष्ठ गणधर श्री इन्द्रभूति गौतम को कैवल्य की प्राप्ति प्रभु-निर्वाण के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल प्रथमा को हुई । अतः भगवान् के पट्ट पर पांचवें गणधर श्री सुधर्मास्वामी प्रथम पट्टधर हुए । इस तरह भगवान् का समस्त श्रमण-समुदाय श्री सुधर्मास्वामी के आश्रित हुआ तथा आजकल जो साधुसमुदाय है वह सर्व इन्हीं की परम्परा का कहलाता है।
श्री इन्द्रभूति गौतम श्री इन्द्रभूति गौतम ५० वर्ष गृहवास में, ३० वर्ष प्रभुसेवा में और १२ वर्ष कैवल्य अवस्था में रहकर ९२ वर्ष की आयु पूर्ण कर वी.नि.सं. १२ में निर्वाण को प्राप्त हुए।
श्री सुधमस्विामी (प्रथम पट्टधर) श्री सुधर्मास्वामी को इसी समय कैवल्य की प्राप्ति हुई। ५० वर्ष गृहवास, ४२ वर्ष छमस्थपर्याय और ८ वर्ष कैवल्य अवस्था का पालन कर १०० वर्ष की आयु पूर्ण कर वी.नि.सं. २० में निर्वाण को प्राप्त हुए।
कलिंग-जिन मगधपति श्री श्रेणिक महाराजा ने कलिंग देश के कुमारगिरि पर जिनमन्दिर का निर्माण करवाया और उसमें श्री ऋषभदेव की सुवर्णमयी प्रतिमा की प्रतिष्ठा श्री सुधर्मास्वामी से करवाई । आगे जाकर यह प्रतिमा कलिंग-जिन के नाम से प्रसिद्ध हुई, साथ ही साथ कुमारगिरि और कुमारीगिरि पर अनेक गुफाएँ खुदवाई जिनमें जैन साधु साध्वी वर्षा-चातुर्मास रहते थे।
श्री जम्बूस्वामी (द्वितीय पट्टधर) श्री सुधर्मास्वामी के पट्ट पर श्री जम्बूस्वामी विराजमान हुए । ये राजगृह नगर के निवासी थे। पिता का नाम श्री ऋषभ और माता का नाम धारिणी था।
सोलह वर्ष की उम्र में श्री सुधर्मास्वामी के पास धर्मोपदेश सुनकर इन्होंने सम्यग्दर्शन और ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार किया ।