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छः श्रुतकेवली श्रीप्रभवस्वामी, श्रीशय्यंभवस्वामी, श्रीयशोभद्रसूरि, श्रीसंभूतविजय, श्रीभद्रबाहुस्वामी और श्रीस्थूलभद्रस्वामी, ये छः चौदहपूर्वधर होने से श्रुतकेवली कहलाये ।
आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती (आठवें पट्टधर) श्री स्थूलभद्रस्वामीजी के पट्ट पर आर्य महागिरिजी और आर्य सुहस्ती हुए । ये दोनों गुरु भाई थे।
आर्य महागिरि आर्य महागिरि ३० वर्ष की उम्र में दीक्षा लेकर ४० वर्ष तक व्रतपर्याय में रहे । निरपवाद चारित्र रूप जिनकल्प श्री जम्बूस्वामी के निर्वाण के साथ विच्छिन्न हो गया था फिर भी आप उसका अभ्यास करते थे । सारांश- आप उत्तम चारित्री थे। ३० वर्ष तक युगप्रधान पद पर रहकर पूरे १०० वर्ष की आयु पालकर वीर निर्वाण संवत् २९७ में स्वर्गवासी हुए।
आर्य सुहस्ती आर्य सुहस्ती ने ३० वर्ष की उम्र में दीक्षा ली । २४ वर्ष तक व्रतपर्याय पाली और ४६ वर्ष तक युगप्रधान पद पर रहे १०० वर्ष की आयु पूर्ण कर वी.नि.सं. ३४३ में स्वर्गवासी हुए । यहाँ तक के आचार्य निर्ग्रन्थगण के कहलाये ।
चौथा निह्नव समुच्छेदवादी इन्हीं के काल में वी.नि. के ३२० वर्ष के बाद मिथिलापुरी में आर्य महागिरि के शिष्य कौडिन्य ठहरे हुए थे । कौडिन्य का शिष्य अश्वमित्र था । आत्मप्रवाद पूर्व के नैपुणिक वस्तु में छिन्नछेद नय की वक्तव्यता पढते पढते वह मिथ्यात्व के उदय से एकान्त समुच्छेदवादी चौथा निसव हो गया । पश्चात् काम्पिल्यपुर में खण्डरक्ष नाम के श्रावक ने उससे एकान्त समुच्छेदवाद का त्याग करवाया ।
महाराजा संप्रति आर्य सुहस्ती ने दुष्काल के समय कौशांबी नगरी में साधुओं से भिक्षा की याचना करने वाले रंक को दीक्षा दी । वह रंक मर कर सम्राट अशोक के पुत्र कुण्हाल की पत्नी की कुक्षी में हाथी के स्वप्नपूर्वक उत्पन्न हुआ । जन्म समय इसका नाम संप्रति रखा गया । शैशव काल में ही दस महीने के इस बालक को अशोक सम्राट ने अपने विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया । वी.नि.सं. के २९२ में राजगद्दी पर आया ।
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