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'कडुआ-मत' की उत्पत्ति हुई।
वि.सं. १५७० में लुंकामत से पृथक् होकर विजय ऋषि ने 'बीजा मत' प्रचलित किया ।
वि.सं. १५७२ में नागोरी तपागच्छ से निकलकर उपाध्याय पार्श्वचन्द्र ने अपने नाम से मत चलाया जो 'पायचंद गच्छ' के नाम से प्रसिद्ध है।
अचलगढ-तीर्थ राणकपुर मन्दिर के निर्माता संघवी धरण शाह के बडे भाई संघवी रत्नाशाह के पांचवें पुत्र का नाम संघवी सालिग था। सं. सालिग का पुत्र सं. सहसा मालवा के बादशाह ग्यासुद्दीन का प्रीतिपात्र महामात्य था। सं. सहसा ने कमल कलश शाखा के आ. श्री सुमतिसुन्दरसूरि के उपदेश से आबू पर्वत के ऊँचे शिखर अचलगढ पर दोमंजिली भव्य चतुर्मुखजिनप्रासाद बनवाया । वि.सं. १५६६ में आ. श्री जयकमलसूरि से प्रतिष्ठिा करवाई जिस में वि.सं. १५१८ और वि. सं. १५२९ में आ.श्री लक्ष्मीसागरसूरि द्वारा प्रतिष्ठित १४४४ मन (१ मन = २० किलो) की पित्तलमयी प्रतिमाएँ बिठाई।
आचार्य श्री आनन्दविमलसूरि (छप्पनवें पट्टधर)
आ. श्री हेमविमलसूरि के पट्टधर आ. श्री आनन्दविमलसूरि हुए । इनका जन्म वि.सं. १५४७ में, दीक्षा वि.सं. १५५२ में, सूरिपद वि.सं. १५७० और स्वर्गवास वि.सं. १५९५ में हुआ ।
आपके समय में एक ओर साधुओं में शिथिलता बढ गई थी, दूसरी ओर प्रतिमा-विरोधी लुंकामत तथा साधु-विरोधी कडुआमत के अनुयायिओं का प्रचार बढ रहा था । इस परिस्थिति में आपने वि.सं. १५८२ में शिथिलाचार का त्याग रूप क्रियोद्धार किया । उसमें संविग्न साधुओं ने साथ दिया । आपकी इस त्यागवृत्ति से प्रभावित हो कर अनेक गृहस्थों ने 'लुंकामत' और 'कडुआ मत' का त्याग किया तथा अनेक आत्माएँ आपके पास दीक्षित हुई।
४७ वें पट्टधर आ. श्री सोमप्रभसूरि ने जेसलमेर वगैरह राजस्थान की भूमि में शुद्ध जल की दुर्लभता के कारण साधुओं का विहार निषिद्ध किया था,
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