Book Title: Jain Itihas
Author(s): Kulchandrasuri
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 131
________________ कुछ समय बाद उपा. श्री सिद्धिचन्द्र के रूप और यौवन से मोहित किसी शाहजादी ने उनसे शादी करना चाहा । तब जहाँगीर ने भी प्रथम लालच और अन्त में भय दिखाते कहा- मान जाओ, नहीं तो हाथी के पाँव के नीचे रौंदे जाओगे । उपा० श्री सिद्धिचन्द्र बोले- दुनिया का बादशाह बन कर जीने की अपेक्षा जगद्गुरु के दिये इस संयम के पवित्र वेष में मर जाना ज्यादा अच्छा समझता हूँ । बादशाह के क्रोध का पार न रहा और हाथी के पाँव के नीचे कुचलने का आदेश दे दिया । राजमहल के प्राङ्गण में उपा० श्री सिद्धिचन्द्र सागरिक अनशन कर कायोत्सर्ग में खडे रहे । राजावेश से मदोन्मत्त हाथी उनकी तरफ छोडा गया परन्तु आश्चर्य तब हुआ जब हाथी उनके पास जाकर एक विनीत शिष्य की अदा से शान्त खडा रहा । यह देखकर बादशाह का आवेश शान्त हुआ और जैन धर्म की जय-जयकार हुई । उपा० श्री सिद्धिचन्द्र उसी शाम को आगरा छोड अन्यत्र चले गये । बादशाह को इस प्रसंग से बडा अफसोस हुआ और उसने उपा० श्री सिद्धिचन्द्र को पुनः सन्मानपूर्वक अपने पास बुला लिया । कावी तीर्थ में सास-बहू के मन्दिर “शेठ कानजी की पत्नी हीरादे द्वारा निर्मित और वि.सं. १६४९ में प्रतिष्ठित विशाल ‘सर्वजितप्रासाद' में प्रवेश करते समय कुंवरजी की पत्नी तेजलदे का सिर द्वार के उत्तरंग के साथ टकरा गया । तब उसने अपनी सास हीरादे से कहासासूजी ! आपने मन्दिर तो विशाल बनवाया है किन्तु द्वार छोटा बनवाया है । हीरादे ने अपनी बहू को कटाक्ष में कहा- ऐसी बात है तो तू ऊँचे द्वार वाला मन्दिर बनवाना | तेजलदे ने तभी मन ही मन निश्चय कर लिया और अपने पति कुंवरजी को प्रेरित कर नया बावन जिनालय 'रत्न - तिलक' नामक प्रासाद बनवाया जिसकी प्रतिष्ठा वि.सं. १६५४ में हुई । कावी तीर्थ के दोनों मन्दिर सास-बहू के मन्दिर कहलाते हैं । ( १२१ )

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