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के अद्भुत तत्त्व-चिन्तन से अवाक् रह गई। यह था योगिराज का नर्तकी-दर्शन । _ 'आनन्दधन-चौबीसी', योगिराज की विशिष्ट कृति है जो क्रमिक साधनामार्ग का दर्शन कराती है और अत्यन्त लोकप्रिय है । इसके अतिरिक्त सौ से ज्यादा वैराग्य के पद आपके रचे हुए हैं।
महोपाध्याय श्री विनयविजय वाचक आ० श्री सिंहसूरि के ज्येष्ठ भ्राता उपाध्याय श्रीकीर्तिविजय गणि के शिष्य उपाध्याय श्री विनयविजय हुए । ये बडे विद्वान् और सौभाग्यशाली थे । इन्होंने काशी में महोपाध्याय श्री यशोविजय के साथ अध्ययन किया था । आपके अधूरे रहे 'श्रीपाल-रास' को उपाध्याय श्री यशोविजय ने पूर्ण किया ।
लोकप्रकाश, कल्पसूत्र की सुबोधिका टीका, शान्त-सुधारस, लघुसिद्धहेमप्रक्रिया आदि आपकी विशिष्ट संस्कृत रचनाएँ हैं । इसके अतिरिक्त गुजराती रचनाओं में 'पुण्य-प्रकाश स्तवन, सज्झाय और रास' इत्यादि लोकप्रिय हैं ।
न्यायाचार्य महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजय वाचक जगद्गुरु आ० श्री हीरविजयसूरि के शिष्य उपा. श्री कल्याणविजय के शिष्य और समर्थ विद्वान् उपा. श्री लाभविजय के शिष्य श्री नयविजय के शिष्य महोपाध्याय श्री यशोविजय हुए । इनका जन्म पाटन के पास कन्होडा गाँव में हुआ था । बाल्यकाल से ही ये तीव्र मेघावी थे । अपनी माता के साथ उपाश्रय में गुरु भगवंत के श्रीमुख से भक्तामर स्तोत्र सुनने मात्र से इनको याद हो गया था । दीक्षा बाल्यकाल में ही वि.सं. १६८८ में अपने छोटे भाई के साथ हुई जिनका नाम मुनि श्री पद्मविजय रखा गया था । उपाध्याय पद वि.सं. १७१८ में
आ० श्री विजयप्रभसूरि के हाथों से और स्वर्गवास वि.सं. १७४४ में डभोई (गुजरात) में हुआ।
वि.सं. १६९९ में श्रीसंघ के समक्ष आपने अष्टावधान किये । इसके बाद आपने गुरु भगवंत की शीतल छाया में काशी में ब्राह्मण पण्डित के पास अध्ययन किया । वहाँ अध्ययनकाल में बाहर से आये वादी सन्यासी को आपने पराजित किया तब वहाँ के पण्डितों ने आपको 'न्यायविशारद' का बिरुद दिया ।
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