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पं. श्री मणिविजय (दादा) गणि
(संवेगीशाखा के ७१ वें पट्टधर) पं. श्री कस्तूरविजय गणि के शिष्य पं. श्री मणिविजय दादा हुए । वर्तमान में विचरने वाले विशाल संख्या के साधुओं के आप परमगुरु होने से 'दादा' के नाम से प्रसिद्ध हैं । आपके मुख्य शिष्य पं. श्री बुद्धिविजयजी (बुटेरायजी) गणि का शिष्यसमुदाय विशाल है। दूसरे शिष्य श्री पद्मविजय के परिवार में कच्छ-वागड देशोद्धारक श्री जितविजय दादा के शिष्य-प्रशिष्य आ. श्री विजयकनकसूरि और आ० श्री विजयशान्तिचन्द्रसूरि के शिष्य-प्रशिष्यों में आ. श्री विजयकलापूर्णसूरि और आ. श्री विजयकनकप्रभसूरि मुख्य है । आपके सबसे छोटे शिष्य संघ-स्थविर आ. श्री विजयसिद्धिसूरि के शिष्य आ. श्री विजयमेघसूरि के शिष्य आ. श्री विजयमनोहरसूरि के शिष्य-प्रशिष्यों में आ. श्री विजयभद्रंकरसूरि मुख्य है । वि.सं. १९३५ में आपका स्वर्गवास हुआ।
पं. श्री बुद्धिविजय (बुटेरायनी) गणि
___ (संवेगी शाखा के ७२ वें पट्टधर) पं. मणिविजय (दादा) गणि के शिष्य पं. बुद्धिविजय (बुटेरायजी) गणि हुए। मूर्ति और मन्दिरों का अपलाप करने वाले ढुंढक-मत का त्यागकर आपने संवेगी मार्ग अपनाया । आप अत्यन्त भवभीरु, वैरागी, शुद्धसंयमी, तपस्वी और आगमों के ज्ञाता थे । आपने अनेक बार उपवास और आयंबिल के बडे-बडे तप किये । पंजाब की कडी ठंड में वस्त्रों को निकालकर रात भर आप ध्यान में बैठे रहते थे । 'मुहपत्ति-चर्चा' आपका रचा अद्भुत ग्रन्थ है जिसमें करीब पचास आगमिक प्रमाणों से मुहपत्ति हाथ में रखना सिद्ध किया है । पंजाब के अनेक शहरों में आपने स्थानकवासियों को वाद में पराजित किया। आपका स्वर्गवास वि.सं. १९३८ में हुआ।
आपके मुख्य शिष्य पं. मुक्तिविजयजी (मूलचंदजी) गणि आपके बाद तपागच्छाधिपति हुए । ये अत्यन्त शान्त स्वभावी और नि:स्पृह थे । इनके प्रति अन्य समुदाय के विद्वान् साधु भी समर्पित थे । दयानन्द सरस्वती. इसी समय में हुए जिन्हें इनकी प्रेरणा से उदयपुर में पं. श्री झवेरसागरजी ने वाद में पराजित किया
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