Book Title: Jain Itihas
Author(s): Kulchandrasuri
Publisher: Divyadarshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 155
________________ था । पं. श्री मुक्तिविजय गणि के शिष्य आ. श्री कमलसूरि ( पालीताणा वाले) वि.सं. १९७४ में स्वर्गवासी हुए जिनके शिष्य - प्रशिष्य मुनि श्री चारित्रविजयजी एवं महान् इतिहासवेत्ता मुनि श्री दर्शन - ज्ञान - चारित्रविजय त्रिपुटी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए । आपके दूसरे शिष्य श्री बुद्धिविजयजी हुए, जिनके मुख्य शिष्य महान् शासनप्रभावक आ. श्री नेमिसूरि और आ. श्री धर्मसूरि (काशीवाले) हुए, जिनकी शिष्य-प्रशिष्य परम्परा में आ. श्री मेरुप्रभसूरि आ. श्री भक्तिसूरि (समीवाले) के शिष्य आ. श्री प्रेमसूरि और पं. श्री पूर्णानंद गणि (कुमार श्रमण) आदि हैं । आपके तीसरे शिष्य श्री नीतिविजय ( दादा ) हुए, जिन्होंने खंभात में जैनशाला संघ की स्थापना की एवं 'विहरमान वीस जिनों की पूजा' रची । संवेगीशाखा के आद्य आचार्य श्री विजयानन्दसूरि ( आत्मारामजी ७3 वें पट्टधर) पं. श्री बुद्धिविजय गणि के लघु शिष्य आ. विजयानन्दसूरि हुए। आपने भी १८ साधुओं के साथ ढूंढक मत का त्याग कर वि.सं. १९३२ में संवेगी मार्ग स्वीकार किया । आप इस सदी के अद्वितीय शासनप्रभावक थे । वि.सं. १९४३ में श्री संघ ने आपको संवेगी शाखा के आद्य आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित किया । आप समर्थ विद्वान्, वादी और वक्ता थे । कुमतियों को आपने स्थान-स्थान पर निरुत्तर किया । दयानन्द सरस्वती को भी आपने वाद के लिए ललकारा था । वि.सं. १९५२ में आप 'अर्हन्... अर्हन्... अर्हन्' 'लो भाई हम चल रहे है और सबको खमाते है' एवं पुनः 'अर्हन्' के उच्चारण के साथ स्वर्गवासी हुए । 'तत्त्वनिर्णयप्रासाद' 'अज्ञानतिमिरभास्कर' 'सम्यक्त्वशल्योद्वार' 'तत्त्वादर्श', सत्तरभेदी पूजा, वीशस्थानकपूजा' वगैरह आपकी अनुपम ग्रन्थ रचना है । आचार्य श्री विजयकमलसूरि (संवेगी शाखा के ७४ वें पट्टेधर) आ. श्री विजयानन्दसूरि के साथ वि.सं. १९३२ में आ. श्री विजयकमलसूरि ने भी संवेगी मार्ग स्वीकारा था और उनके मुख्य शिष्य श्री लक्ष्मीविजय के शिष्य बने (१४५)

Loading...

Page Navigation
1 ... 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162