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थे । वि.सं. १९५२ में आ. श्री विजयानन्दसूरि के स्वर्गवास के बाद वि.सं. १९५७ में समग्र समुदाय ने आपको उनके पट्ट पर आचार्य पद देकर प्रतिष्ठित किया और उनके शिष्य सिद्धवचनी कविवर श्री वीरविजय को उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया । 'सलाह सबकी सुननी, लेकिन करना वही जो शासन ने फरमाया है' आचार्य पद आरूढ होने वाले के लिए आपके मुखकमल से निकले हुए ये मन्त्राक्षर हैं । ब्रह्मतेज से देदीप्यमान आपकी धर्मदेशना शासन - रक्षा के लिए सिंहगर्जना के समान थी ।
आपने अपने पट्ट पर वि.सं. १९८१ में उपाध्याय श्री वीरविजय के शिष्य पं. श्री दानविजय को और अपने शिष्य श्री लब्धिविजय को आचार्य पद देकर प्रतिष्ठित किया । व्याख्यान वाचस्पति आचार्य श्री लब्धिसूरि समर्थ विद्वान्, वादी और वक्ता हुए । उनके प्रवचनों से पंजाब में बडी संख्या में लोगों ने मांसाहार का त्याग किया था । आपने अनेक वादों में विजय पायी थी । संस्कृत भाषा में घंटों तक धारावाही प्रवचन करने वाले आप अनुपम शासनप्रभावक थे । आपके रचे स्तवन और सज्झाय लोकप्रिय हैं ।
आपके परिवार में आ० श्री भुवनतिलकसूरि और आ० श्री विक्रमसूरि के शिष्य प्रशिष्य आ० श्री विजयभद्रंकरसूरि आ० श्री विजयनवीनसूरि आदि है ।
इसी समय श्री लक्ष्मीविजय के शिष्य पं. श्री हर्षविजय के शिष्य आ० श्री विजयवल्लभसूरि हुए जिनका प्रभाव आज भी पंजाब में है । इनके परिवार में आ० श्री विजयइन्द्रदिन्नसूरि आदि हैं ।
सकलागमरहस्यवेदी आ. विजयदानसूरि (संवेगी शाखा के ७५ वें पट्टधर)
आ. श्री विजयकमलसूरि के पट्टधर और उपा० श्री वीरविजय के शिष्य श्री विजयदानसूरि स्व-परशास्त्रों के रहस्यवेत्ता, प्रौढ प्रतापी और निर्मलचारित्री थे आप साधुओं की संयमरक्षा और ज्ञानवृद्धि के लिए सदा जागरूक रहते थे । वि.सं. १९९१ में अपने शिष्य उपा० श्री प्रेमविजय को आचार्य पद देकर अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित कर आप वि.सं. १९९२ में स्वर्गवासी हुए ।
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