Book Title: Jain Itihas
Author(s): Kulchandrasuri
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 143
________________ पश्चात् आप आगरा गये । वहाँ चार वर्ष तक अध्ययन कर आप स्व-पर शास्त्रों में पारंगत बने । आगरा में आपने दिगंबर पण्डित बनारसीदास को पराजित किया। काशी में गंगा नदी के किनारे सरस्वती देवी से आपने कवि और विद्वान् बनने का वरदान पाया था। इस तरह आप अनेक वादों में विजय पाकर एवं विद्वता से समृद्ध बन कर गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में बडे आडम्बर से प्रवेश कर रहे थे तब वहाँ के सूबेदार मुहब्बताखाँ का ध्यान खींचा गया और उसने आपको अपनी राजसभा में आमंत्रित किया । वहाँ आपने अठारह अवधान कर बताये । सुबेदार खूब प्रभावित हुआ और आपको पूरे सन्मान से उपाश्रय पहुँचाया। आप तार्किकशिरोमणि हुए । सिर्फ न्याय के सौ से अधिक ग्रन्थों की आपने रचना की जिनका प्रमाण दो लाख श्लोक प्रमाण था । इस प्रकार की रचना से काशी के पण्डितों ने आपको 'न्यायाचार्य' का बिरुद दिया था। सिर्फ 'रहस्य' पद से अंकित १०८ ग्रन्थों की रचना की इच्छा से आपने अनेक ग्रन्थ रचे जिनमें से 'नयरहस्य' 'स्याद्वादरहस्य' 'भाषारहस्य' इत्यादि ग्रन्थ आज भी प्राप्त हैं । प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी और गुजराती भाषा में आपके रचे हुए करीब सौ ग्रन्थ आज भी उपलब्ध हैं । आपने अपने ग्रन्थों में एका र दर्शनों का निराकरण कर, अनेकान्त-- दर्शन का युक्तिपूर्वक मण्डन किया है । __ आपके ऐसे अनेक ग्रन्थों में 'स्थ. दादालन स्थाहादकल्पलता' इत्यादि संस्कृत भाषा के और 'द्रव्य-गुण पर्यायन र ममती का मुख्य है। आपका 'ज्ञानसार' ग्रन्थ तो जैनी गीता हो । ___आप अपने समय के दिग्गज विद्वान और वादी थे । भात में अनौष्ठ्य वाद में ब्राह्मणों को आपने एक क्षण में हरा दिया था भागको अतुल विद्वत्ता वर्तमान "ल में पूर्व के पालिका की स्मृति कराती है ! विद्वत्ता के साथ साथ आप उत्तम संयमी भी थे । आपकी प्रेरणा से वि.सं. १७१० में श्री ऋद्धिविमलगांण ने और वि.सं. १७४९ में आ. श्री ज्ञानविमलसूरि ने क्रियोद्धार किया था । (१३३)

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