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पं. श्री उत्तमविजय गणि (संवेगीशाखा के ६६ वें पट्टधर )
पं. श्रीजिनविजय गणि के शिष्य प. श्रीउत्तमविजय गणि हुए। आपने वि.सं. १८१३ में अष्टप्रकारी पूजा, चैत्यवंदन, स्तवन, सज्झाय इत्यादि की रचना की । इसी समय अहमशाह अब्दाली आया, जिसने दो लाख मराठा सैनिककत्ल किये । आपके समय में वि.सं. १८१८ में स्थानकवासी रगुनाथजी के शिष्य भीखमजी ने बगडी से 'तेरह पंथ' चलाया । वि.सं. १८२७ में आप स्वर्गवासी हुए।
पं. श्री पद्मविजय गणि
पं. श्री उत्तमविजय गणि के शिष्य पं. श्री पद्मविजय गणि हुए। आपने वि.सं. १८३८ में नवपदपूजा और वि.सं. १८५१ मे नवाणुं प्रकार की पूजा रची । चैत्यवंदन, स्तवन, स्तुति और सज्झाएँ भी आपने रचीं । वि.सं. १८६२ में आपका स्वर्गवास हुआ ।
उपाध्याय श्री उदयरत्न गणि
आ० श्री विजयदानसूरि (५७) के दूसरे पट्टधर आ. श्री विजयराजसूरि (५८) से तपागच्छ रत्नशाखा निकली । उसमें ६५ वें उपा. श्री उदयरत्न गणि इसी समय हुए। ये समर्थ कवि थे ।
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एक बार आप शंखेश्वरजी तीर्थ में चतुर्विध संघ लेकर पधारे थे । वहाँ के ठाकुर ने मन्दिर के दरवाजे बन्द करवा दिये और संघ से प्रभु-दर्शन की लागा मांगने लगा । तब साधु श्री के मन्दिर के द्वार पर खडे होकर 'पास शंखेश्वरा सार कर सेवका, देव ! कां एवडी वार लागे ? कोडी कर जोडी दरबार आगे खडा, ठाकुरा चाकुरा मान मागे ।' छन्द ललकारते ही अपने आप ताले टूट गये और दरवाजे खुल गये । संघ में आनन्द का पार न रहा । ठाकुर बडा लज्जित हुआ और आप से क्षमा मांगने लगा ।
ऐसे ही भाववाही और लोकप्रिय स्तवन, स्तुति, सज्झाय आदि आपके है ।
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