________________
मुसीबतों का सामना करना पडा, फिर भी यह अकबर के सामने झुका नहीं । अन्त में अपने जैन मंत्री भामाशाह की सहायता से पुनः सैन्य इकट्ठा कर हल्दी घाटी के मैदान में मुगलों के छक्के छुडा दिये और अपने देश मेवाड को पुनः स्वतंत्र किया ।
महाराणा प्रताप आ० श्री हीरविजयसूरि के प्रति पूज्यभाव रखता था और उनको मेवाड पधारने हेतु उसने वि.सं. १६४३-४४ में विनती पत्र भी लिखा था ।
आचार्य श्री विजयसेनसूरि ( उनसठवें पट्टधर)
आ० श्री हीरविजयसूरि के पट्ट पर आ० श्री विजयसेनसूरि आये । इनका वि.सं. १६०४ में नाडलाई में जन्म, वि.सं. १६१३ में माता - पिता के साथ दीक्षा, वि.सं. १६२८ में आचार्य पद और वि.सं. १६७१ में खंभात के अकबरपुरा में स्वर्गवास हुआ ।
आपने अनेक मन्दिरों की प्रतिष्ठा एवं जीर्णोद्धार करवाया, बीस वर्ष तक २००० साधुओं का नेतृत्त्व किया, और योगशास्त्र के प्रथम श्लोक 'नमो दुर्वाररागादि' के ७०० अर्थ वाला विवरण तथा मुक्तावली इत्यादि ग्रन्थों की रचना की।
वि. १६४९ में आप अकबर बादशाह के आमंत्रण से लाहौर पधारे । वहाँ सैकडों ब्राह्मणों को बाद में परास्त किया । इससे संतुष्ट होकर बादशाह अकबर ने आपको 'सवाई हीर' की पदवी दी थी । आपने पन्यास श्री भानुचन्द्र को उपाध्याय पद दिया जिसका महोत्सव अबुलफजल ने अपने खर्च से किया था।
तपस्विनी श्राविका चम्पाबाई
शेठ थानमल की माता का नाम चम्पाबाई था । इसके छह मास के उपवास तप से अकबर बादशाह का ध्यान इसकी ओर खिंचा गया। अकबर बादशाह इसी के मुख से आ० श्री हीरविजयसूरि की प्रशंसा सुनकर उनके परिचय में आया था ।
मन्त्री भामाशाह
भामाशाह जैन महाराणा प्रताप का मन्त्री और आ० श्री विजयदानसूरि और आ० श्री विजयराजसूरि का भक्त था । राणा प्रताप को इसने आपत्ति के समय में बडी महत्त्वपूर्ण सहायता की थी । इसीसे राजगद्दी पर राणाओं के राज्याभिषेक का तिलक करने का अधिकार भामाशाह और उसके वंशजों को मिला था ।
( ११९)