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वि.सं. १७१५, १७१९ और १७२० में गुजरात आदि में भयंकर दुष्काल था किन्तु सौराष्ट्र में आपकी उपस्थिति के कारण दुष्काल का प्रसार नहीं हुआ । पन्यास श्री सत्यविजय गणि (तिरसठवें पट्टधर)
क्रियोद्धार और संवेगीशाखा आ० श्री विजयसिंहसूरि के मुख्य शिष्य पन्यास श्री सत्यविजयगणि हुए । वि.सं. १७०८ में आपके गुरुदेव के स्वर्गवास के बाद आ. श्री देवसूरि ने आपको आचार्य पद देना चाहा किन्तु आपने संतोष भाव से मना कर दिया । जगद्गुरु आचार्य श्री हीरविजयसूरि के शिष्य उपाध्याय श्री कीर्तिविजयगणि (पूर्व पर्याय से) आ० श्री विजयसिंहसरि के बडे भाई थे । अतः उनके शिष्य उपा. आ० श्री विनयविजयगणि और आपमें गाढ प्रीति थी। आपने उपा० श्री विनयविजय गणि, महोपाध्याय श्री यशोविजय वाचक आदि चारित्रप्रिय १७ साधुओं के सहयोग से क्रियोद्धार किया । संवेगी शाखा आपसे चली । आपके शिष्य पं० कर्पूरविजय गणि और पं० कुशलविजय गणि हुए।
आचार्य श्री राजसागरसूरि और सागर शाखा आ०श्री राजसागरसूरि महोपाध्याय श्री धर्मसागर गणि के शिष्य आ०श्री लब्धिसागर के शिष्य उपा. श्री नेमसागर के छोटे भाई तथा शिष्य थे । इनका जन्म वि.सं. १६३७ में सिपोर में हुआ । इनका दीक्षा नाम मुक्तिसागर था । वि.सं.१६७९ में आ०श्री विजयदेवसूरि के वासक्षैप से शेठ शान्तिदास ने ईनको उपाध्याय पद दिलाया । पश्चात् वि.सं. १६८६ में इनको आचार्य पद दिलाकर 'राजसागरसूरि' के नाम से आ० श्री विजयदेवसूरि के पट्ट पर प्रतिष्ठित किया । इनसे सागर शाखा चली ।
आचार्य श्री ज्ञानविमलसूरि श्री ऋद्धिविमल गणि और
विमलशाखा क्रियोद्धारक आ० श्री ज्ञानविमलसूरि का जन्म भीनमाल में वि.सं. १६९४ में हुआ । आ०श्री आनन्दविमलसूरि (५६ वें पट्टधर) के शिष्य पं. श्री हर्षविमल (५७) के शिष्य, पं.श्री जयविमल (६०) के शिष्य पं. धीरविमल गणि (६१) के
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