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देवसूरिगच्छ और आनन्दसूरि गच्छ की उत्पत्ति ___ आ० श्री विजयदेवसूरि के शासन काल में उपा० श्री सोमविजय, उपा० श्री कीर्तिविजय आदि सागरविरोधी साधुओं ने सागर-साधुओं के प्रति आचार्य श्री का उदार रुख देखकर वि.सं. १६७३ में आ० श्री विजयसेनसूरि के पट्ट पर आ० श्री विजयतिलकसूरि को आचार्य पद दिलवाकर प्रतिष्ठित किया । आ० श्री विजयतिलकसूरि ने वि.सं. १६७६ में आ० श्री विजयआनन्दसूरि को आचार्य पद देकर अपना पट्टधर बनाया।
एक बार आ० श्री विजयसेनसूरि और आ० श्री विजयआनन्दसूरि दोनों ने मिलकर निश्चित किया कि हिल-मिल कर चलें । यह संघटन तीन साल चला। बाद में दोनों समुदाय अलग-अलग हो गये जो आगे जाकर देवसूरिगच्छ और आनन्दसूरि गच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुए तथापि आचरण दोनों गच्छों का समान रहा।
आ. श्री विजयसिंहसूरि और आ. श्री विजयप्रभसूरि
__(इकसठवें पट्टधर)
आचार्य श्री विजयसिंहसूरि आ० श्री विजयदेवसूरि के पट्टधर आ० श्री विजयसिंहसूरि हुए । इनका जन्म मेदिनीपुर में वि.सं. १६४४ में, दीक्षा वि.सं. १६५४ में माता-पिता और तीन भाइयों के साथ, आचार्य पद और पट्टस्थापना वि.सं. १६८१ में तथा स्वर्गवास वि.सं. १७०८ में हुआ । ये प्रखर बुद्धिशाली, स्थिर, गंभीर और क्षमाशील थे। आप समर्थ प्रवचनकार थे । मेवाड का राजा जगत्सिंह तो आपका श्रावक बन गया था । वह हमेशा भगवान् श्री ऋषभदेव की पूजा करने लगा था । आपके उपदेश से झींझुवाडां (सौराष्ट्र) में मछली पकडना बन्द हुआ था।
आचार्य श्री विजयप्रभसूरि (बासठवें पट्टधर) आ० श्री विजयप्रभसूरि का जन्म वि.सं. १६३७ में कच्छ के मनोहरपुर में, दीक्षा वि.सं. १६८६ में और नाम श्री वीरविजय, आचार्य पद वि.सं. १७१०, वि.सं. १७१३ में गच्छानुज्ञा और स्वर्गवास वि.सं. १७४९ में हुआ ।
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